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महामन्त्री की चाल व्यर्थ हुई
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हठात् रत्नजड़ित स्वर्ण दण्ड लिए एक प्रतिहारी देव आया और बोला---
"तुम यह क्या कर रहे हो ? तुम्हें मालूम नहीं है कि--'ज! देव यहाँ नये उत्पन्न होते हैं, उन्हें सब से पहले अपने सौधर्म स्वर्ग के आचार का पालन करना होता है। उसके बाद ही स्वर्गीय सुख भोगते हैं । ये तो हम सब के स्वामी हैं। इनसे तो इसका अवश्य पालन करवाना चाहिये । तुम में इतना भी विवेक नहीं रहा ?"
-“हम प्रसन्नता के आवेग में भूल गए । अब आप ही स्वामी को वह आचार बताइये--गन्धर्व ने कहा ।
___-"स्वामिन् ! देवों का यह आचार है कि उत्पन्न होने के पश्चात् उनसे पूछा जाता है कि--"पूर्वभव में आपने क्या-क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य वि ये, जिस से आत्मा में इतनी शक्ति उत्पन्न हुई कि आप लाखों-करोड़ों देव-देवियो के स्वामी हुये । कृपया अपने पूर्व-भव के आचरण का वर्णन कीजिये''--प्रतिहारी ने नम्रतापूर्वक कर बद्ध निवेदन किया।
महामन्त्री अभय कुमार ने यह योजना इसलिये की थी कि नशे में मतताला होकर और देव जैसी लेला देख कर रोहिण स्वयं को देव मान लेगा और अपने सभी पाप उगल देगा।
रोहिण मद्य में मतवाला तो था, परन्तु अब नशा उतार पर था। प्रतिहारी का प्रश्न सुन कर वह चौंका । उसने विचार किया--"क्या सचमुच में मनुष्य-देह छोड़ कर देव हो गया हूँ और ये सब देव-देवियाँ हैं ?" विचार करते उसे भगवान् से सुनी हुई बात स्मरण हो आई। उसने उन तथा-कथित देव-देवियों की ओर देखा, तो उनमें एक भी लक्षण दिखाई नही दिया । वे सब भूमि पर खड़े थे। उनकी पलकें स्थिर नहीं रहती थी। गान-वादन और नृत्य से उनके मुख पर पसीना आ रहा था और पुष्पमालाएँ मुरझा गई थी। वह समझ गया कि यह सब महामात्य की--मेरे अपराध मुझ-से स्वीकार करवाने की--चाल है । उसने कहा ;--
"मैंने मनुष्य-भव में दुःखीजनों की सेवा की, जीवों को अभयदान दिया, सुपात्र दान दिया और शद्धाचार का पालन कर के देव-पद प्राप्त किया है । मैने दुष्कृत्य तो किया ही नहीं।"
प्रतिहारी--"जीवन में कुछ-न-कुछ दुराचरण हो ही जाता है। इसलिये किसी भी प्रकार का पाप किया हो, तो वह भी कह दीजिये।"
रोहिण--"नहीं, मैने कोई पाप नहीं किया। यदि पाप करता, तो इस देव-विमान में उत्पन्न हो कर तुम्हारा स्वामी बन सकता?"
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