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तीर्थकर चरित्र-भाग ३
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गोशालक जिन, तीर्थंकर, जिन-प्रलापी, सर्वज्ञ-सर्वदशी थे। वे अन्तिम तीर्थक र थे। उन्होंने मुक्ति प्राप्त की है।" इस प्रकार उत्तम सत्कार-सम्मान के साथ मेरे शरीर की अंतिम क्रिया करना ।"
गोशालक का आदेश स्थविरों ने स्वीकार किया।
भावों में परिवर्तन और सम्यक्त्व-लाभ तेजोलेश्या के प्रसंग की सातवीं (जीवन की अन्तिम) रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब गोशालक की मति में परिवर्तन आया। उसने सोचा--"मैं झूठ-मूठ जिन-तीर्थकर बन कर लोगों को ठग रहा हूँ । वस्तुतः मैं झूठा, मिथ्यावादी, श्रमण-घातक, गुरु-द्रोही. अविनीत, एवं धर्म-शत्रु हूँ। मैने लोगों को भ्रमित किया है । मैं अपनी ही तेजोलेश्या से आहत हुआ हूँ और पित्तज्वर से व्याप्त हो, दाह से जल रहा हूँ। मैं मर रहा हूँ। वस्तुत: जिन सर्वज्ञसर्वदर्शी अंतिम तीर्थकर तो श्रमण भगवान् महावार स्वामी ही हैं।"
इस प्रकार विचार कर गोशालक ने स्थविरों को बुलाया और उन्हें शपथ दे कर कहा;--
"मैं वास्तव में जिन-तीर्थकर नहीं हूँ और न सर्वज्ञ ही हूँ। मैं ढोंगी--दंभी हूँ। मैं मंखलीपुत्र गोशालक ही हूँ। मैं श्रमणघातक, गुरु द्रोही धर्मशत्रु हैं। जिन तीर्थंकर तो श्रमण भगवान महावीर ही हैं। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं । मैं तो छद्मस्थ अवस्था में ही मर रहा हूँ। जब मैं मर जाऊँ, तो मेरा बायाँ पाँव रस्सी से बाँधना और मेरे मुंह में थूकना, फिर मुझे नगरी में घसीटते हए ले जाना और उच्च स्वर से घोषणा करना कि--
"यह मंखलीपुत्र गोशालक है। यह जिन-तीर्थंकर नहीं है । यह श्रमण-घातक, गुरु-द्रोही है । इसने अज्ञान अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त की है। श्रमण भगवान महावीर प्रभु ही तीर्थंकर हैं।" इस प्रकार उद्घोषणा करते हुए मेरे शव का निष्क्रमण करना।"
इस समय उच्च भावों में गोशालक ने सम्यक्त्व प्राप्त कर ली और इन्ही भावों में मृत्यु को प्राप्त हुआ।
मताग्रह से आदेश का दांभिक पालन हुआ गोशालक का देहान्त जान कर स्थविरों ने द्वार बंद कर दिया। फिर भूमि पर नगरी का रेखाचित्र खिंच कर आकार बनाया। तत्पश्चात् गोशालक के बायें पाँव में रस्सी
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