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________________ तीर्थंकर चरित्र भाग ३ गोशालक ने आनन्द स्थविर को देखा और अपने निकट बुला कर कहा--" आनन्द ! तू मेरा एक दृष्टांत सुन; " बहुत काल पूर्व वणिकों का एक समूह धन प्राप्ति के लिए विदेश जाने के लिए घर से निकला । एक महा अटवी में चलते हुए उनका साथ लाया हुआ पानी समाप्त हो गया और अटवी में उन्हें कहीं पानी दिखाई नहीं दिया । वे लोग पानी की खोज करने लगे। उन्हें वृक्षों के समूह में एक बाँबी दिखाई दी । उसके पृथक्-पृथक् शिखर के समान चार विभाग ऊँचे उठे हुए थे । उस बाँबी और शिखर को देख कर वणिक प्रसन्न हुए । उन्होंने परस्पर विचार कर निर्णय किया कि " अपन पूर्व दिशा के शिखर को तोड़ डालें । इसमें से अच्छा पानी निकलेगा ।" उन्होंने एक शिखर को तोड़ा। उसमें से अच्छा एवं स्वादिष्ट पाना निकला। उन लोगों ने स्वयं पानी पिया, बैलों को पिलाया और अपने पात्र भर लिये । तत्पश्चात् उन्होंने परस्पर विचार कर दक्षिण का शिखर तोड़ा, तो उसमें से उन्हें पर्याप्त स्वर्ण मिला। वे प्रसन्न हुए और जितना ले सकते थे, लिया । उन्होंने तीसरा पश्चिम वाला शिखर तोड़ कर मणि-रत्न प्राप्त किये। उनका लोभ बढ़ता गया । उन्होंने चौथे शिखर को भी तोड़ने का विचार किया। उन्हें विश्वास था कि उसमें से महा मूल्यवान् वज्र - रत्न निकलेंगे । जब वे चौथे शिखर को तोड़ने का निश्चय करने लगे, तो उनमें से एक बुद्धिमान् विचारक बोला ; :-- " बन्धुओं! अधिक लोभ हानिकारक होता | हमें पर्याप्त पानी मिल गया, जिससे हमारा जीव बच गया, स्वर्ण और मणि रत्न भी मिल गए। अब इसी से संतोष करना चाहिए। अधिक लोभ अनिष्टकारी होता है ।" साथी नहीं माने। उन्होंने चौथा शिखर तोड़ा। उसमें से भयंकर दृष्टि-विष सर्प निकला । सर्प ने शिखर पर चढ़ कर सूर्य की ओर देखा । उसके बाद उपने व्यापारी व को महा कंधित दृष्टि से देखा । बस, उमकी वह दृष्टि उन वणिकों का काल बन गई । वे सब भस्म हो गये। उनमें से एक मात्र वही वणिक बचा, जिसने चौथा बिंब तोड़ने से उन साथियों को रोका था। देव ने उसे अपने भण्डोपकरण सहित उसके नगर पहुँचा दिया ।" उपरोक्त दृष्टांत पूर्ण करते हुए गोशालक ने आनन्द स्थविर से कहा--" आनन्द ! तेरे धर्म-गुरु धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र बड़े महात्मा बन गए हैं । देवों और मनुष्यों वन्दन य हो गए हैं । लोगों से वे बहुत प्रशंसित हुए हैं। उन्हें इतने से ही संतुष्ट रहना चाहिए । यदि मुझ से वे आज कुछ भी कहेंगें. तो में उन्हें परिवार सहित उसी प्रकार भस्म कर लूंगा, जिस प्रकार सर्पराज ने वणिकों को किया था। परंतु मैं तुझे नहीं मारूंगा । तरा व ३२६ Jain Education International ―― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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