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श्रमणोपासक कुण्डकोलिक का देव से विवाद နဖ၆၀၀ ၀၀၀ ၀၀ဖိုး ၉၈၀၀ ၈၀၀
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देव का आक्षेप सुन कर कुण्डकोलिक बोला; ---
"देव ! यदि गोशालक की मान्यता ठीक है, तो बताओ तुम्हें देवत्व और तत्संबंधी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो गई ? बिना पुरुषार्थ किये ही तुम देव हो गये क्या ?"
"हां, मुझे बिना पुरुषार्थ किये ही--भवितव्यतावश--देवत्व प्राप्त हुआ है"देव ने उत्तर दिया।
देव का उत्तर सुन कर श्रमणोपासक ने उसे एक विकट प्रश्न पूछ लिया-- ___ “अच्छा, जब तुम्हें बिना पुरुषार्थ किये--मात्र नियति से ही--दिव्यता प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में पुरुषार्थ दिखाई नहीं देता, उन पृथिवी एवं वृक्षादि स्थावर जीवों को देव-भव और दिव्य-ऋद्धि क्यों नहीं प्राप्त हुई ?"
__इस तर्क ने देव की बोलती बन्द कर दी। उसका मत डिग गया। अपने स्वीकृत मत में उसे सन्देह उत्पन्न हो गया। वह कुतर्की और हठाग्रही नहीं था। वह पूर्वभव में गोशालक-मति रहा होगा अथवा गोशालक का मत उसे ठीक लगा होगा। अपने मत को ठीक सत्य और सर्वोतम मान कर ही वह एक प्रभावशाली मनुष्य को समझाने आया था। अपना मत व्यापक बनाने के विचार से वह भगवान महावीर के प्रतिष्ठित उपासक के पास आया होगा। किन्तु कुण्डकोलिक श्रमणोपासक के सशक्त तर्क ने उसके विश्वास की जड़ हिला दी । वह शंकित हो गया और चुपचाप मुद्रिका और उत्तरीय-वस्त्र यथास्थान रख कर चलता बना।।
त्रिलोक पूज्य परम तारक भगवान् महावीर प्रभु का उस नगर में पदार्पण हुआ । कुण्डकोलिक भी भगवान् को वन्दन करने गया। धर्मोपदेश के पश्चात् भगवान् ने कुण्डकोलिक से पूछा--
"कुण्डको लिक ! कल अशोकवाटिका में तुम्हारे पास गोशालक-मति देव आया था और वह निरुत्तर हो कर लौट गया । क्या यह बात सत्य है ?"
"हां, भगवन् ! सत्य है"-उपासक ने नतमस्तक हो कर कहा ।
भगवान् ने निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को सम्बोधित कर कहा--"तुम तो द्वादशांग के ज्ञाता हो । तुम्हें भी प्रसंग उपस्थित होने पर अन्यतीर्थी को अपनी धमप्रज्ञप्ति, हेतु एवं युक्तियों से समझा कर प्रभावित करना चाहिए।" निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी ने भगवान् के कथन को ‘तहति' कह कर शिरोधार्य किया।
कुण्डकोलिक श्रमणोपासक ने भी ग्यारह प्रतिमाओं का पालन किया और बीस वर्ष की श्रावकपर्याय पाल कर अनशन कर सौधर्म स्वर्ग के अरुणध्वज विमान में चार
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