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________________ ३०४ तीर्थकर चरित्र - भाग ३ आदर्श श्रावक आनन्द 'वाणिज्य ग्राम' नामक नगर में 'जितशत्रु' नामक राजा था। उस नगर में 'आनन्द' नाम का एक महान् ऋद्धिशाली गृहस्वामी था । उसकी पत्नी का नाम 'शिवानन्दा' था । जो सुरूपा सुलक्षणी और गुणसम्पन्न थी । पति-पत्नी में परस्पर प्रगाढ़ स्नेह था । आनन्द के चार कोटि स्वर्णमुद्रा भण्डार में सुरक्षित थी, चार कोटि स्वर्णमुद्रा व्यापार में लगी थी और चार कोटि स्वर्णमुद्रा का धन, गृह सम्बंधी वस्तुओं में लगा हुआ था । उसके चालीस हजार गोओं के चार गो वर्ग थे । आनन्द का व्यापार क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण था । पाँच सौ गाड़ियें तो व्यापार सम्बन्धी वस्तुओं के लाने ले जाने में ही लगी रहती थी, पाँच सौ गाड़ियाँ गो वर्ग के घास-दाना गोमय आदि ढोने में लगी रहती थी । चार जलयान विदेशों में व्यापार के काम में आते थे । वह वैभवशाली तो था ही, साथ ही बुद्धिमान्, उदार और लोगों का विश्वासपात्र था। राजा, प्रधान, सेठ, सेनापति, ठाकुर, जागीरदार और सामान्य जनता के महत्वपूर्ण कार्यों में, उलझन भरे विषयों में और गुप्त मन्त्रणाओं में आनन्दश्रेष्ठ पूछने और सलाह लेने योग्य था । वह सब को उचित परामर्श देता था । सभा लोग उस पर विश्वास करते थे । वह दूसरों के सुख-दुःख में सहायक होता था । वह सभी के लिए आधारभूत था । एकदा भगवान् महावीर प्रभु वाणिज्य ग्राम नगर के दूतिपलास उद्यान में पधारे। राजा आदि भगवान् को वन्दन करने गये । आनन्द भी भगवान् का आगमन और राजा का वन्दनार्थ जाना सुन कर भगवान् को वन्दन करने गया । भगवान् का उपदेश सुन कर आनन्द ने प्रतिबांध पाया । उसकी आत्मा में सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ। उसने श्रावक के बारह व्रत धारण किये । तत्पश्चात् आनन्द ने भगवान् से प्रश्न पूछ कर अपने ज्ञान में वृद्धि की और भगवान् के सम्मुख प्रतिज्ञा की कि- " भगवन् ! अब में अन्य यूथिकों को, अन्य यूथिक देव और अन्य यूथक गृहतों को वन्दना नमस्कार नहीं करूँगा । उनके बोलने से पहले उनसे में बालूंगा भी नहीं, विशेष सम्पर्क भी नहीं रखूंगा और बिना किसी दबाव के उन्हें धर्म-भावना से आहारादि दान भी नहीं दूंगा । क्योंकि अब यह मेरे लिए, अकरणाय हो गया है । अब में श्रवण-निग्रंथों को भक्तिपूर्वक आहारादि प्रतिलाभता रहूँगा।" आनन्द श्रमणोपासक उठा और भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के घर की ओर चला । उसका हृदय हर्षोल्लास से परिपूर्ण था । आज उसकी आँखें खुल गई थी । वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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