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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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गजेन्द्र मुक्ति और तापसों के प्रतिबोध की बात सुन कर महाराजा श्रेणिक और अभयकुमार आदि मुनिराज के समीप आये और वन्दना कर के कहने लगे--" 'महात्मन् ! आपके द्वारा गजराज की मुक्ति होना जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ राजश्री ने कहा--" राजन् ! गजेन्द्र मुक्ति होना उतना कठिन नहीं, जितना त्राव सूत्र ( स्नेह सूत्र ) के बन्धन से मुक्ति पाना कठिन होता है ।"
राजा ने त्राकसूत्र का अर्थ पूछा तो मुनिराज ने
अपनी कथा सुनाई ।
मुनिराज ने अभयकुमार की प्रशंसा करते हुए कहा--": 'महानुभाव ! आप मेरे परम उपकारी हैं। मैं तो अनार्य था, परन्तु आपकी उत्तम भेंट ने मुझे भान कराया और मैं इस मुक्ति मार्ग पर चल निकला । आपकी मैत्री का ही प्रभाव है कि मैं अनार्य से आर्य बना और आर्य-धर्म का पालन करता हुआ विचर रहा हूँ ।"
कककककककक कककककक
मुनिराज श्री अपने शिष्यों के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँचे और भगवान् को वन्दना की। उन्होंने तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना कर के मुक्ति प्राप्त की ।
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ऋषभदत्त देवानन्दा
ब्राह्मणकुण्ड नगर में 'ऋषभदत्त' ब्राह्मण रहता था। वह ऋद्धि-सम्पन्न एवं सामर्थ्यवंत था । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में वह निपुण था। इतना ही नहीं, वह वेद-वेदांग और ब्राह्मणों के अनेक शास्त्रों के रहस्यों का ज्ञाता था । इतना होते हुए भी वह श्रमणोपासक था । जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता और धर्म में अनुरक्त था । उसकी पत्नी का नाम 'देवानन्दा' था । वह सुन्दरी सुशीला एवं प्रियदर्शना थी । देवानन्दा भी जिनधर्म में अनुरक्त श्रमणोपासिका थी ।
एक बार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ब्राह्मणकुण्ड पधारे । भगवान् का आगमन जान कर ऋषभदत्त ब्राह्मण भगवान् को वन्दनार्थ जाने के लिये रथ पर बैठा । देवानन्दा भी सुसज्जित हो कर दासियों के साथ निकली और रथारूढ़ हो कर बहुशालक वन में आई | भगवान् के छत्र चामरादि अतिशय देखते ही पति-पत्नी रथ से नीचे उतरे और विधिपूर्वक भगवान् के निकट आ कर वन्दना की, नमस्कार किया। देवानन्दा भगवान् को देख कर ठिठक गई । उसके हृदय में वात्सल्य भाव उत्पन्न हो कर वृद्धिगत हुआ । उसके नेत्र आनन्दाश्रु बरसाने लगे । हर्षावेग से उसकी भुजाएँ विकसित हुई, भुजबन्धादि
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