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तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ Napnaकापक्ककककककककककककककककककककककककककक कककककककककककककककककका
सेठ अशान्त एवं उद्विग्न हृदय से भोजन लेने गये, किन्तु उन्हें कुछ मिला नहीं। उनकी दृष्टि में पशुओं के लिये पकाये हुए उड़द का भोजन आया। उन्होंने वहीं रखे हुए एक सूप के कोने में उड़द के बाकुले लिये और शीघ्र ही लौटे । उन्होंने चन्दना को देते हुए कहा--"ले बेटी ! अभी तो ये ही मिले हैं। तू थोडासा खा ले । मैं लुहार को बुला कर लाता हूँ। पहले तेरी बेड़ियाँ कटवा दं, फिर बाहर ले चलँगा।"
इतना कह कर सेठ लुहार को बुलाने चले गए। चन्दना को वपत्ति के बादल छटते दिखाई दिये । वह आश्वस्त हुई।
भगवान का अभिग्रह पूर्ण हुआ
चन्दना का चिन्तन चला--"कहाँ मैं राजकन्या, उच्चकुलोत्पन्न, भरपूर वैभव में पली हई, दास-दासियों द्वारा सेवित । मेरे भोजनालय में रोज सैकड़ों मनुष्य भोजन करते थे और दान पाते थे और कहाँ आज बन्दीगृह में भूखी पड़ी हुई मैं कृतदासी । कर्म के खेल कितने और कैसे-कैसे रूप सजते हैं ? वैभव के शिखर से दरिद्रता और दासत्व की भमि पर गिरने में कितना समय लगा ? आज तीन दिन की भूख प्यास सहन करने के बाद मुझे ये कुल्मास ही मिले हैं । अपनी हीन दशा के विचार से हृदय उमड़ा और आँसु झरने लगे। उसने सोचा--जठर की ज्वाला तो इनसे भी शान्त हो जायगी । परन्तु यदि कोई अतिथि आवे, तो इनमें से कुछ उसे दे कर मैं खाऊँ।"
वह खले द्वार की ओर देखने लगी। उसी समय दीर्घ-तपस्वी अभिग्रहधारी भगवान महावीर भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए वहाँ पधारे । भगवान् को देख कर चन्दना हर्षित हुई-. "अहो, कितना उत्तमोत्तम महापात्र ! कितना शुभ संयोग।" वह सूपड़ा ले कर द्वार के निकट आई । एक पाँव देहली के बाहर रख कर खड़ी हुई । बेड़ी होने के कारण दूसग पाँव देहली के बाहर नहीं निकल सका। वह आर्तहृदय युक्त भक्तिपूर्वक बोली--''प्रभो! यद्यपि यह भोजन अत्यन्त तुच्छ है, आपके योग्य नहीं है, तथापि मुझ पर कृपा कर के कुछ ग्रहण कीजिय । आप तो परोपकारी हैं--भगवन् ? ये बाकले ले कर मुझ पर अनुग्रह कोजिय।"
। भगवान् ने द्रव्यादि की शुद्धि और अभिग्रह की पूर्ति का विचार कर के हाथ ल. बा किया। चन्दना मन में हर्षित होती हुई और अपने को धन्य मानती हुई सूपड़े के बाकले
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