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________________ संगम पराजित होकर भी दुःख देता रहा १९७ तोसली गाँव से भगवान् मोसलि गाँव पधारे । संगम ने वहाँ भी इसी प्रकार का उपद्रव खड़ा किया । भगवान् को पकड़ कर लोग राज्य-सभा में ले गये । वहाँ सुमागध नामक प्रान्ताधिकारी भगवान् को पहिचान गया । वह सिद्धार्थ नरेश का मित्र था और प्रभु को जानता था । उसने भगवान् की वन्दना की और मुक्त करवाया । प्रपंची संगम खोज करने पर भी नहीं मिला। एक स्थान पर भगवान् के पास घातक शस्त्रास्त्रों का ढेर लगा दिया और स्वयं शस्त्रागार में सेंध लगा कर शस्त्र निकालते हए पकड़ा गया। वहाँ कहा कि मेरे गरु को राज्य प्राप्त करने के लिए शस्त्रास्त्रों की आवश्यकता है। ये शस्त्र में उन्हीं की आज्ञा से ले जा रहा हूँ। आरक्षकों ने भगवान् को बन्दी बना लिया और फाँसी चढ़ाने ले गये। फाँसी पर लटकाने पर फन्दा टूट गया । बार-बार फाँसी पर लटकाया गया और फन्दा टूटता गया। अधिकारी स्तंभित रह गये और भगवान् को कोई अलौकिक महात्मा जान कर छोड़ दिया । असली अपराधी तो खोज करने पर भी नहीं मिला। प्रातःकाल होने पर भगवान् ने वालुक ग्राम की ओर विहार किया। संगम तो शत्रुता करने पर तुला ही था । उसने उस मार्ग को रेतीले सागर के समान दुर्लंघ्य एवं दीर्घ बना दिया। उस मार्ग पर चलना ही कठिन था । घुटने तक पाँव रेती में घुस जाते थे । उस निर्जन मार्ग पर उसने लुटेरों का एक विशाल समूह उपस्थित कर दिया। वे चोर भगवान् के शरीर पर 'मामाजी, मामाजी'-कहते हुए झूम गये और उन्हें अपने बाहुपाश में इतने जोर से जकड़ने लगे, जिससे पत्थर हो तो भी टूट जाय और श्वास सैंध जाय । परन्तु भगवान् तो गृहत्याग के समय ही यह प्रतिज्ञा लिये हुए थे कि "मैं किसी भी प्रकार के भयंकरतम उपसर्ग को शान्ति से सहन करूँगा।" भगवान् अडोल ही रहे और वह उपसर्ग भी दूर हुआ । भगवान् वालुक गांव पधारे । संगम तो शत्रु हो कर पीछे लगा हुआ ही था । भगवान् वन, उपवन, ग्राम, नगर जहाँ भी पधारते, संगम अनेक प्रकार के उपसर्ग उत्पन्न करता और दुःखों के पहाड़ ढाता ही रहता । इस प्रकार लगातार छह महीने तक उपसर्ग देता रहा । भगवान् के यह छहमासी तप चल रहा था । छह महीने पूर्ण होने पर भगवान् एक गोकुल (अहिरों की बस्ती) में पधारे । उस समय वहाँ कोई उत्सव मनाया जा रहा था । भगवान् भिक्षार्थ पधारे, तो वे जिस घर में पधारते, संगम वहाँ के आहार को अनेषणीय (दूषित) बना देता। भगवान् ने ज्ञानोपयोग से संगम की शत्रुता जान ली। वे उद्यान में आ कर प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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