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तीर्थंकर चरित्र - भा. ३
'गोशालक ने भगवान् की बताई हुई विधि विनयपूर्वक स्वीकार की ।"
गोशालक सदा के लिए पृथक् हुआ
भगवान् गोशालक के साथ कूर्म ग्राम से सिद्धार्थ नगर पधार रहे थे । वे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ गोशालक ने भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने के लिए तिल का पाधा उखाड़ फेंका था । गोशालक की स्मृति में वह पौधा आया । उसने तत्काल भगवान् से कहा; --
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" भगवन् ! आपने मुझसे कहा था कि 'यह तिल का पौधा फलेगा और पुष्प के जीव, तिल के सात दानों के रूप में उत्पन्न होंगे । किन्तु आपका वह भविष्य कथन सर्वथा मिथ्या सिद्ध हुआ । में प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि वह पौधा भी यहाँ नहीं है । वह नष्ट हो चुका है । फिर पुष्प के जीवों की तिलरूप में उत्पन्न होने की बात तो वैसे ही असत्य हो जाती है ।"
भगवान् ने कहा
'गोशालक ! तेरी इच्छा मुझे मिथ्यावादी ठहराने की हुई थी । मुझ से पूछने के बाद तू मेरा साथ छोड़ कर पीछे खिसका और उस पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया । किन्तु उसके बाद वर्षा हुई । एक गाय चरती हुई उधर निकली, जिधर तेने वह पौधा फेंका था । गाय के खुर से दब कर पौधे का मूल पृथ्वी में जम गया । पृथ्वी और पानी की अनुकूलता पा कर वह पौधा जीवित रह कर बढ़ा और उसमें दाने के रूप में सातों पुष्प के जीव उत्पन्न हुए । तिल का वह पौधा अब भी उस स्थान पर खड़ा है, जहाँ तेने उसे उखाड़ कर फेंक दिया था । उसमें सात दाने सुरक्षित हैं ।"
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गोशालक का गुप्त पाप भगवान् से छुपा नहीं रहा और पौधा उखाड़ना भी व्यर्थ रहा -- यह गोशालक जान गया । परन्तु फिर भी वह अविश्वासी रहा । वह पौधे के निकट गया और उसकी फली तोड़ी। फली को मसल कर तिल के दाने गिने, तो पूरे सात ही निकले । इस घटना पर से उसने यह सिद्धांत बनाया कि--" सभी जीव मर कर उसी शरीर में उत्पन्न होते हैं, जिसमें उनकी मृत्यु हुई थी ।" यही गोशालक मत का " परिवर्तपरिहार" वाद है ।
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गोशालक को तेजोलेश्या प्राप्त करने की विधि प्राप्त हो गई थी। इसके बाद वह भगवान् के साथ नहीं रह सका और पृथक् हो गया ।
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