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________________ १२४ कक्यावकरालककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका तोर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ अश्वग्रीव पर झपटने ही वाले थे कि त्रिपृष्ठ सावधान हो गए। उन्होंने ज्येष्ठ बन्धु को रोकते हुए कहा;-- "आर्य ! ठहरिये, ठहरिये, मुझे ही अश्वग्रीव की करणी का फल चखाने दीजिए। वह मुख्यतः मेरा अपराधी है । आप उसके घमण्ड का अंतिम परिणाम देखिये।" राजकुमार अचल, छोटे बन्धु को सावधान देख कर प्रसन्न हुए और उसको अपनी भुजाओं में बाँध कर आलिंगन करने लगे। सेना में भी विषाद के स्थान पर प्रसन्नता व्याप्त हो गई । हर्षनाद होने लगा। त्रिपृष्ठ ने देखा कि अश्वग्रीव का फेंका हुआ चक्र पास ही निस्तब्ध पड़ा है। उन्होंने चक्र को उठाया और गर्जनापूर्वक अश्वग्रीव से कहने लगे ;-- "ऐ अभिमानी वृद्ध ! अपने परम अस्त्र का परिणाम देख लिया ? यदि जीवन प्रिय है, तो हट जा यहाँ से । मैं भी एक वृद्ध की हत्या करना नहीं चाहता । यदि अब भी तू नहीं मानेगा और अभिमान से अडा ही रहेगा, तो तू समझ ले कि तेरा जीवन अब कुछ क्षणों का ही है।" अश्वग्रीव इन वचनों को सहन नहीं कर सका। वह भ्रकुटी चढ़ा कर बोला--- "छोकरे ! वाचालता क्यों करता है। जीवन प्यारा हो, तो चला जा यहाँ से । नहीं, तो अब तू नहीं बच सकेगा । तेरा कोई भी अस्त्र और यह चक्र मेरे सामने कुछ भी नहीं है । मेरे पास आते ही मैं इसे चर-चूर कर दंगा।" अश्वग्रीव की बात सुनते ही त्रिष्ठ ने क्रोधपर्वक उसी चक्र को ग्रहण किया और बलपूर्वक घुमा कर अश्वग्रीव पर फेंका। चक्र सीधा अश्वग्रीव की गर्दन काटता हुआ आगे निकल गया। त्रिपृष्ठ की जीत हो गई । खेवरों ने त्रिपृष्ठ वासुदेव की जयकार से आकाश गुंजा दिया और पुष्प-वर्षा की। अश्वग्रीव की सेना में रुदन मच गया। अश्वग्रीव के संबंधी और पुत्र एकत्रित हुए और अश्रुपात करने लगे। अश्वग्रीव के शरीर का वहीं अग्निसंस्कार किया। वह मृत्यु पा कर सातवीं नरक में, ३३ सागरोपम की स्थिति वाला नारक हुआ। । उस समय देवों ने आकाश में रह कर उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए कहा"राजाओं ! अब तुम मान छोड़ कर भक्तिपूर्वक त्रिपृष्ठ वासुदेव की शरण में आओ। इस भरत-क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के ये प्रथम वासुदेव हैं। ये महाभुज त्रिखंड भरतक्षेत्र की पृथ्वी के स्वामी होंगे।" यह देववाणी सुन कर अश्वग्रीव के पक्ष के सभी राजाओं ने भी त्रिपृष्ठ वासुदेव के समीप आ कर प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर विनति करते हुए इस प्रकार बोले-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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