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________________ अश्वग्रीव का भयंकर युद्ध और मृत्यु >>FPာာာာာာာာာာာာာာာာP कहा - " यह से विद्य धरों का मायाजाल है । इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है । जब इनकी सेना हारने लगी और हमारी सेना पर इनका जोर नहीं चला, तो ये विद्या के बल से भयभीत करने को तत्पर हुए हैं। यह इनकी कमजोरी है । ये बच्चों को डराने जेसी कायरता पूर्ण चाल चल रहे हैं। इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है । अतएव हे महावीर ! उसे और रथारूढ़ हो कर आग आओ तथा अपने शत्रुओं को मानरूपी हाथी पर से उतार कर नीचे पटको ।' ११९ ज्वलनजटी के वचन सुन कर त्रिपृष्ठकुमार उठे और अपने रथ पर आरूढ़ हुए । उन्हें सन्नद्ध देख कर सेना भी उत्साहित हुई । सेना में उत्साह भरते हुए वे आगे आये । अचल बलदेव भी शस्त्रपज्ज रथारूढ़ हो कर युद्ध-क्षेत्र में आ गये । इधर ज्वलनजटी आदि विद्याधर भी अपने-अपने वाहन पर चढ़ कर समर-भूमि में आ गए। उस समय वासुदेव के पुण्य से आकर्षित हो कर देवगण वहाँ आए और त्रिपृष्ठकुमार को वासुदेव के योग्य ' शारंग' नामक दिव्य धनुष, 'कौमुदी' नाम की गदा, 'पांचजन्य' नामक शंख, 'कौस्तुभ' नामक मणि, 'नन्द' नामक खड्ग और 'वनमाला' नाम की एक जयमाला अर्पण की । इसी प्रकार अचलकुमार को बलदेव के योग्य - ' संवर्तक' नामक हल, 'सौनन्द' नामक मूसल और 'चन्द्रिका' नाम की गदा भेंट की । वासुदेव और बलदेव को दिव्य अस्त्र प्राप्त होते देख कर सैनिकों के उत्साह में भरपूर वृद्धि हुई । वे बढ़ चढ़ कर युद्ध करने लगे । उस समय त्रिपृष्ठ वासुदेव ने पांचजन्य शंख का नाद कर के दिशाओं को गुंजायमान कर दिया । प्रलयंकारी मेघ गर्जना के समान शंखनाद सुन कर अश्वग्रीव की सेना क्षुब्ध हो गई । कितने ही सुभटों के हाथों में से शस्त्र छूट कर गिर गए। कितने ही स्वयं पृथ्वी पर गिर गए । कई भाग गए। कई आँखे बन्द किए संकुचित हो कर बैठ गए, कई गुफाओं और खड्डों में छुप गए और कई थरथर धूजने लगे । अश्वग्रीव का भयंकर युद्ध और मृत्यु अपनी सेना को हताश एवं छिन्न-भिन्न हुई देख कर अश्वग्रीव ने सैनिकों से कहा'ओ, विद्याधरों ! वीर सैनिकों ! एक शंख-ध्वनि सुन कर ही तुम इतने भयभीत हो गए ? कहाँ गई तुम्हारी वह अजेयता ? कहाँ गई प्रतिष्ठा ? तुम अपनी आज तक प्राप्त की हुई प्रतिष्ठा का विचार कर के, शीघ्र ही निर्भय बन कर मैदान में आओ । आकाशचारी विद्याधरगण ! तुम भी भूचर मनुष्यों से भयभीत हो गए ? यदि युद्ध करने का साहस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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