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पानी की मांग
लायक कककककककककककककककककककककककक दक्षि: लो के इन्द्रमान, सम्राट अश्वग्रीव की आज्ञा से मैं आपको सूचना करता हूँ कि इसी समय अपनी पुत्री को ले कर चलें।" ...।
दूत के कर्ण-कट वचन सुन कर भी ज्वलनजटो ने शान्ति के साथ कहा-- - क ई अ वस्तु कसी को दे-देने के बाद देने वाले का अधिकार उस वस्तु पर नहीं रहता। फर कन्या तो एक बार ही दे जाती है। मैने अपनी पुत्री, त्रिपृष्ठकुमार को दे दं! है । अब लस की माँग करना, किसी प्रकार उचित एवं शोभास्पद नहीं हो सकता। में एपी माँग को स्वीकार भी कैसे कर सकता हूँ ? यह अनहोनी बात है।" .. ज्वलन जटी का उत्तर सुन कर, दूत वहाँ से चला गया। वह त्रिपृष्ठकुमार के पास आया और कहने लगा---
"पृथ्वी पर साक्षात इन्द्र के समान विश्वविजेता महाराजाधिराज अश्वग्रीव ने आदेश दिया है कि "तुमने अनधिकारी होते हुए, चुपके से स्वयंप्रभा नामक अनुपम स्त्रीरत्न को ग्रहण कर लिया। यह तुम्हारी धृष्टता है । मैं तुम्हारा, तुम्हारे पिता का और तुम्हारे बन्धु-बान्धवादि का नियन्ता एवं स्वामी हूँ। मैने तुम्हारा बहुत दिनों से रक्षण किया है । इसलिए इस सुन्दरी को तुम मेरे सम्मुख उपस्थित करो।" आपको इस आज्ञा का पालन करना चाहिए।"
दून के ऐसे अप्रत्याशित एवं क्रोध को भड़काने वाले वचन सुन कर, त्रिपृष्ठकुमार की भृकुटी चढ़ गई । आँखें लाल हो गई। वे व्यंगपूर्वक कहने लगे--
"दूत ! तेरा स्वामी ऐसा नीतिमान् है ? वह इस प्रकार का न्याय करता है ? इस माँग में लोकनायक कहलाने वाले की कुलीनता स्पष्ट हो रही है । इस पर से लगता है कि तेरे स्वामी ने अनेक स्त्रियों का शील लट कर भ्रष्ट किया होगा । कुलहीन, न्याय. नोति से दूर, लम्पट मनुष्य तो उस बिल्ले के समान है जिसके सामने दूध के कुंडे भरे हुए
नको रक्षा की आशा कोई भी समझदार नहीं कर सकता। उसका स्वामित्व हम पर तो क्या, प न्तु ऐसी दुष्ट नीति से अन्यत्र भी रहना कठिन है । कदाचित् वह अब इस जीवन से भी तृप्त हो गया हो । यदि उसके विनाश का समय आ गया हो, तो वह स्वयं, स्वयंप्रभा को लेने के लिए यहाँ आवे। बस, अब तू शीघ्र ही यहाँ से चला जा । अब तेरा यहाँ ठहरना मैं सहन नहीं कर सकता।" ..
प्रथम पराजय दूत सरोष वहाँ से लौटा। वह शीघ्रता से अश्वग्रीव के पास आया और सारा
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