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तीर्थंकर चरित्र
थोड़े दिनों बाद 'निर्वाणसंगम' नाम के ज्ञानी मुनि वहाँ पधारे । इन्द्र उनको वंदन करने गया और पूछा ; -
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" भगवन् ! मैं किस पाप के फलस्वरूप रावण से पराजित हुआ ?"
मुनिराज बोले - " अरिंजय नगर में ज्वलनसिंह नाम का विद्याधर राजा था । उसकी अहिल्या नाम की रूपसम्पन्न पुत्री थी । उसके स्वयंवर में विद्याधरों के अनेक राजा उपस्थित हुए । उन राजाओं में चन्द्रावर्त नगर का ' आनन्दमाली' और सूर्यावर्त नगर का राजा 'तडित्प्रभः ' -- तू भी था । तुझे विश्वास था कि अहिल्या तुझे वरण करेगी, किन्तु उसने आनन्दमाली को वरण किया । तेने इसमें अपना अपम न माना और आनन्दमाली पर द्वेष रखने लगा । कालान्तर में आनन्दमाली ने संसार का त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार की और उग्र तप करता हुआ वह मुनियों के साथ रथावर्त नाम के पर्वत पर आया और ध्यानस्थ हुआ । संयोगवश तू भी पत्नी सहित उस पर्वत पर पहुँचा । जब तेने उस मुनि को देखा, तो तेरी ईर्षा प्रकट हो गई । तेने उस ध्यानस्थ मुनि को बाँध लिया और मारने लगा । तपस्वी मुनि समभाव युक्त मार सहन करते रहे। जब उस मुनि के भाई कल्याण नाम के मुनि ने मुनि पर प्रहार करते तुझे देखा, तो कुपित होगए और तुझ पर तेजोलेश्या फेंकने लगे, किन्तु तेरी पत्नी ने भक्ति पूर्वक प्रार्थना कर के मुनि को शान्त किया और तू बच गया । वहां का आयु पूर्ण कर तू भव-भ्रमण करने लगा । फिर पुण्योपार्जन सेतू इन्द्र हुआ। तू इस समय जिस पराजय के दुःख को भोग रहा है, यह तेरे उस पाप का फल है, जो तेने मुनि को बाँध कर प्रहार करने से उपार्जन किया था ।"
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अपने पूर्व पाप का फल जान कर, इन्द्र विरक्त हुआ और प्रव्रजित हो कर उत्कृष्ट आराधना से मोक्ष प्राप्त कर लिया ।
रावण का भविष्य
कालान्तर में रावण, स्वर्णतुंग गिरि पर, केवलज्ञानी महर्षि अनंतवीर्यजी को वन्दन करने गया । धर्मदेशना सुनने के बाद रावण ने पूछा - " भगवन् ! मेरी मृत्यु का निमित्त क्या होगा । में किस के द्वारा मारा जाऊँगा ?"
भगवान् ने कहा- "रावण ! भविष्य में उत्पन्न होने वाले वा देव के द्वारा, परस्त्री के निमित्त से तू मारा जायगा ।"
भगवान् से अपना भविष्य सुन कर, रावण ने प्रतिज्ञा की कि - " जो परस्त्री मझे नहीं चाहेगी, मैं उसके साथ रमण नहीं करूँगा ।"
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