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________________ द्वारिका का विनाश . कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक देव-निर्मित्त द्वारिका देव-प्रकोप से जल कर नष्ट होने लगी। उसके रत्नों के कंगुरे और स्वर्ण के गवाक्ष दि राख के ढेर होने लगे। मनुष्यों में हा-हाकार मच गया। सभी जल कर मरने लगे । सारो नगरी जीवित मनुष्यों और पशुओं की श्मशान भूमि बन गई । चारों ओर अग्नि की आकाश छुने वाली प्रचण्ड ज्वालाएँ ही दिखाई देने लगी । अपने प्राण बचाने के लिए यदि कोई भागने का प्रयत्न करता, तो वह कर देव उसे वहीं स्तंभित कर देता, इतना ही नहीं बाहर रहे हुए को भीतर पहुँचा कर नष्ट करता । देव ने महा भयंकर संवतंक वायु की विकुवर्णा की और घासफूस और काष्ठ को उड़ा कर आग की लपटों में गिराने लगा और अग्नि को अधिकाधिक उग्र करने लगा। श्रीकृष्ण और बलदेवजी इस भयंकर विनाश-लीला को देख रहे थे । पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों की करुण चित्कार एवं हृदयद्रा नक पुकार, उनका हृदय मथित कर रही थी, परन्तु वे निरुपाय थे। उन्होंने उधर से ध्यान हटा कर माता-पिता को बचाने का निश्चय किया। एक रथ में वसुदेवजी, माता देवकी और रोहिणी को बिठा कर रथ को चलाने लगे, किन्तु घोड़े पांव भी नहीं उठा सके । क्रुद्ध देव ने उन्हें स्तंभित कर दिया था। श्रीकृष्ण ने घोड़े को खोल दिया और दोनों बन्धु रथ खींच कर चलने लगे। रथ को एक विशाल द्वार के निकट लाये कि द्वार अपने-आप बन्द हो गया। बलदेवजी ने द्वार के लात मारी, तो वह टूट कर गिर गया। दोनों भाई रथ खींच कर आगे बढ़ने लगे, तो द्वैपायन देव बोला; "महानुभाव ! मेने आप को कहा था कि आप दोनों बन्धुओं के सिवाय और कोई भी द्वारिका से जीवित नहीं निकल सकेगा। फिर आप व्यर्थ ही मोह में फंस कर इन्हें निकालने की चेष्टा कर रहे हैं। आपको सोचना चाहिए कि मैंने अपने जीवनभर की तपस्या दाँव पर लगा दी थी। अब में अपने निदान को व्यर्थ नहीं जाने दूंगा।" द्वैपायन की बात सुन कर श्रीवसुदेवजी और दोनों रानियाँ बोली--"पुत्रों ! अब तुम हमें यहीं छोड़ दो और शीघ्र ही यहां से चले जाओ। तुम जीते रहोगे, तो सारे यादव जीवित समझेंगे । जहाँ तुम होगे, वहीं द्वारिका होगी। हमारा मोह छोड़ दो। हमने भूल की जो उस समय भ. नेमिनाथजी के पास दीक्षित नहीं हुए। धन्य है वे भव्यात्माएँ, जिन्होंने प्रभु के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर संसार की माया-जाल से मुक्त हुए । अब हम भी अठारह पाप का त्याग करते हैं और प्रभु का शरण ग्रहण करते हैं । “अरिहंता सरणं पवज्जामि सिद्धासरणं पवज्जामि......वे स्मरण करने लगे और उन पर द्वार गिर पड़ा। वे वहीं काल कर के देवगति में गये । हरि-हलधर नगरी के बाहर निकल कर, एक जीर्ण उद्यान में खड़े हो, द्वारिका का विनाश देखने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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