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________________ पशुओं को अभयदान x x x वरराज लौट गए विराट व्यक्तित्व की आगाही दे चुका था । किन्तु मोह का प्रबल उदय उन्हें आश्वस्त नहीं होने दे रहा था। उनके हृदय को आघात लगा और वे मूच्छित हो गए । श्रीकृष्ण ने कहा--' भाई ! तुम्हें हमारी, अपने माता-पिता और बन्धुवर बलदेवजी आदि ज्येष्ठजनों की बात माननी चाहिए। में जानता हूँ कि तुम बहुत प्रशस्त हो, तुम्हारी आत्मा बहुत पवित्र है, तुम मोह पाग में बँधने वाले नहीं हो, परन्तु माता-पितादि ज्येष्ठजनों के मन को शांति देने के लिए तथा उस चन्द्रमुखी कमल-लोचना को परित्यक्ता होने के दुःख से बचाने के लिए तुम्हें लग्न करना चाहिए। लग्न करने के बाद भी तुम यथोचित रूप से धर्म की आराधना नहीं कर सकोगे क्या ?" ५८६ नहीं, बन्धुवर ! मैं अब किमी नये बन्धन में बन्धने की बात सोच ही नहीं सकता । जब मुक्त होना है, तो नये बन्धन में क्यों बन्धूं ?” "भाई ! तुम दयालु हो। तुमने पशुओं की दया की और उन्हें बन्धन मुक्त कर के सुखी किया । यह तो ठीक किया, परन्तु तुम अपने माता-पिता और आप्तजन के दुःख दूर कर के सुखी क्यों नहीं करते ? इनकी दया करना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है क्या ? क्या पशुओं से भी मनुष्य महत्त्वहीन हो गया है ? पशुओं को सुखी करना, और मनुष्यों को दुःखी करना उचित है क्या ? हम सभी के दुःख का कारण तो तुम स्वयं बन रहे हो । यदि तुम लग्न करना स्वीकार कर लो, तो हम सभी का दुःख मिट कर सुख प्राप्त हो सकता है । यह दुःख भी तुम्हीं ने उत्पन्न किया है और सुखी भी तुम ही कर सकते हो । अपने निर्णय पर पुन: विचार करो और लग्न मण्डप की ओर चलो। समय बिता जा रहा है " -- श्रीकृष्ण ने कहा । लुक " ' भातृवर ! पशुओं को छुड़ाना मेरे लिये बन्धनकारी नहीं था और न पशु अपने-आप मुक्त हो सकते थे । क्योंकि वे दूसरों के बन्धन में बन्धे थे । किन्तु आप तो अपने ही बन्धन में बन्धे हैं । आप सब का मोह ही आप सब को दुःखी कर रहा है । इस मोहजनित दुःख से मुक्त होना तो आप सभी के हाथ में है । में आपको दुःखी नहीं कर रहा हूँ, वरन् आप सभी मुझे दुःखदायक बन्धन में बाँध रहे हैं। अपने क्षणिक सुख के लिए मुझे बन्दी बनाना भी क्या न्यायोचित है ?” Jain Education International " 'मैं तो आप सभी का हित ही चाहता हूँ । जिस प्रकार में स्वयं मोहजनितबन्धन से बचना चाहता हूँ, इसी प्रकार आप सभी बचें और निर्मोही हो कर शाश्वत सुखी बने । मोह के वश हो कर जीव ने स्वयं दुःख उत्पन्न किया है और मोह त्याग कर स्वयं ही सुखी हो सकता है । आपसे मेरा निवेदन है कि मुझे स्वतन्त्र रहने दीजिये । मन को मोड़ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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