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तीर्थङ्कर चरित्र
संसार में रहे तो अच्छा । उन्होंने अरिष्टनेमि को मोहित करने का उपाय सोचा और एक दिन उन्हें अपने साथ ले कर अन्तःपुर में आये । दोनों बन्धुओं ने साथ ही भोजन किया । श्रीकृष्ण ने अन्तःपुर के रक्षकों से कहा--"ये मेरे भाई हैं । यदि ये अन्तःपुर में आवें, तो इन्हें आने देना । इन पर किसी प्रकार की रोक नहीं है।" उन्होंने रानियों से कहा
___अरिष्टनेमि मेरे सगे छोटे भाई के समान हैं । तुमने इन्हें कभी अपने यहाँ बुलाया नहीं ?"
-"ये न जाने किस गुफा में रहते हैं। न तो कभी अपनी भाभी से मिलने आते हैं और न कहीं दिखाई देते हैं । अपने होते हुए भी पराये जैसे रहने वाले ये कुछ निर्मोही होंगे"--सत्यभामा ने कहा ।
"यह अलौकिक आत्मा है। स्नेह-सम्बन्ध से दूर ही रह कर, अपने ही विचारों में मग्न रहते हैं"--श्रीकृष्ण ने कहा ।
--"आपने इनका विवाह नहीं किया, इसी से ये अबोध और निर्मोही रहे हैं । विवाह होने के बाद इनमें रस जाग्रत होगा"--पद्मावती ने कहा ।
---"हां, यह बात तो है । अब इनके लग्न कर ही देंगे"--श्रीकृष्ण ने कहा।
---"मुझे तो ये योगी जैसे अरसिक लगते हैं। नहीं, तो अब तक कुंआरे रहते ? राजकुमारों के विवाह तो वे स्वयं ही कर लेते हैं । जिस पर मन लगा, उसे छिन लाये, उड़ा लाये और लग्न कर लिये । आप के इतने लग्न किसी दूसरे ने आगे हो कर करवाये थे क्या ?"--रानी जाम्बवती ने श्रीकृष्ण पर कटाक्ष किया।
-"अच्छा तो आपने अपना एक तर्कतीर मुझ पर भी छोड़ दिया । परन्तु बन्धु को आत्मा हम सब से विशिष्ट है। इनके लिये तो हमें हो आगे होना पड़ेगा"-श्रीकृष्ण ने कहा।
अरिष्टनेमि चुपचाप सुन रहे थे। उन्हें इस बात में कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने उठते हुए कहा--- " अब चलूंगा बन्धुवर !" और चल दिये।
श्रीकृष्ण ने रानियों से कहा-"बसंत-ऋतु चल रही है। उत्सव भी मनाना है । मैं नन्दन-वन में इस उत्सव का आयोजन करवाता हूँ। तुम सब मिल कर इस उत्सव में अरिष्टनेमि को विवाह करने के लिये तत्पर बनाओ। वह विरक्त है । इसे किसी प्रकार मोहित कर के विवाह बन्धन में बाँध देना है । इसके लिए एक सुलक्षणी परमसुन्दरी और अद्वितीय युवती की भी खोज करनी है । अरिष्टनेमि को रिझा कर अनुकूल बनाना तुम सब का काम है । उससे सम्पर्क रखती हो ।"
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