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अधर सिंहासन ?
चाहिए । नरेश के निर्णय से जो झूठा ठहरे, उसकी जिव्हा काट दी जाय।" इस शर्त के साथ दोनों ने राजा से निर्णय कराना स्वीकार किया।
इस विवाद एवं शर्त की बात, पर्वत की माता ने सुनी, तो वह चिंतित हो गई। उसने एकांत में पुत्र से कहा--
“पुत्र ! तेने बड़ी भारी भूल कर डाली । मैने भी तेरे पिता के मुंह से अज शब्द का वही अर्थ सुना--जो नारद कहता है। तेने आवेश में आ कर जिव्हा-छेद की शर्त कर के बहुत ही बुरा काम किया है।"
पर्वत ने कहा---' मां ! मैं तो वचन-बद्ध हो चुका, अब पलटने का नहीं । जो होना है वह होगा।"
पुत्र-वियोग की कल्पना से दुःखित हो कर, पर्वत की माता, राजा वसु के पास गई । राजा ने गुरु-पत्नी का सत्कार किया और आने का कारण पूछा । पर्वत की माता ने पुत्र के जीवन की भिक्षा माँगी। राजा ने कहा---
"गुरुपुत्र तो मेरे लिए आदरणीय है। वह गुरु का उत्तराधिकारी होने के कारण गुरु-स्थानीय है । उसका अनिष्ट करने वाले को मैं समूल नष्ट कर दूं । कौन है वह दुरात्मा जो उपाध्याय पर्वत का अनिष्ट करना चाहता है ? बताओ मां ! मैं उसका नाम जानना चाहता हूँ ?"
गुरु-पत्नी ने सारा वृत्तांत सुनाया । सुन कर वसु स्तब्ध रह गया। उसने कहा--
" माता ! पर्वत ने झूठा पक्ष लिया है। गुरु ने 'अज' का अर्थ मेढ़ा नहीं किंतु तीन वर्ष पुराना-नहीं उगने वाला--धान्य ही किया है । यदि मैं पर्वत का किया हुआ अर्थ मान्य करूँ, तो सत्य की घात होगा। गुरुवचन का लोप होगा, और अधर्म होगा। अर्थ का अनर्थ करना तो बहुत बुरा है माता ! यह मैं कैसे कर सकूँगा ? पर्वत ने ऐसा मिथ्या पक्ष क्यों लिया, और ऐसी कठोर शर्त क्यों लगाई ?"
“यदि तुम गुरु के वंश की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझते हो, तो तुम्हें इस आपति-काल में थोड़ी देर के लिए सत्य के आग्रह को छोड़ना होगा। अन्यथा तुम्हारे गरु का वंश ही डूब जायगा। तुम्हें मेरे दुःख और गुरुवंश के नष्ट होने का कुछ भी विचार नहीं है ? तुम अपनी हठ पर ही अड़े हो तो तुम जानो।" इस प्रकार कह कर वह रोषपूर्वक जाने लगी। उसे निराश एवं रोषपूर्वक जाती हुई देख कर, राजा पसीज गया और उसने उसे बुला कर पर्वत का मान रखने का वचन दिया।
राज-सभा में सत्यासत्य का भेद करने वाले एवं माध्यस्थ गुण से सुशोभित सभ्यजन
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