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ककककककव
तीर्थङ्कर चरित्र
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" अच्छा, अभी लो, परन्तु आपके सुन्दर बाल........ .. हँसते हुए श्रीकृष्ण ने फिर पूछा । सत्यभामाजी रोषपूर्वक मुँह बनाती हुई लौटी। श्रीकृष्ण ने बलदेवजी से कहा-" दाऊ ! आप भी जामिनदार हैं । आप स्वयं इनके साथ जाइए और इस विपत्ति का निवारण कीजिए ।"
सत्यभामा के साथ बलदेवजी चल कर रुक्मिणी के भवन में पहुँचे, तो वे स्तंभित रह गए । उन्होंने देखा - कृष्ण, रुक्मिणी के पास बैठे हैं । शीघ्र ही लौट आये । यह करामात प्रद्युम्न की थी । उसने विमाता और बलदेवजी को दूर से आते देखा, तो विद्याबल से स्वयं कृष्ण का रूप बना लिया, जिससे उन्हें दूर से ही लौटना पड़ा । किन्तु उन्हें यहाँ भी स्तंभित रहना पड़ा, क्योंकि कृष्ण यहीं बैठे थे । सत्यभामा फिर बिगड़ी और तडुकी- --" तुम दोनों मिल कर मेरा उपहास करते हो। मुझ से भी मीठे बनते हो और गुपचुप उस चण्डिका से भी मिले रहते हो। मैं जानती हूँ, तुम आखिर हो तो ढोर चराने वाले ग्वाल ही न ? मैं भोली हूँ जो तुम पर विश्वास कर लेती हूँ". .कहती हुई रोषपूर्वक लौट गई ।
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" अरे प्रिये ! सुनो तो सही । में तो ने श्रीकृष्ण को भी उलझन में डाल दिया । वे पीछे चले ।
उधर नारदजी रुक्मिणा के भवन में आये और बोले- भद्रे ! तुम जिस विप्र से बात कर रही हो, वही तुम्हारा पुत्र है । किन्तु है बड़ा छलिया | यह ...... इतने में प्रद्युम्न माता के चरणों में झुका और अपना वास्तविक रूप प्रकट किया। रुक्मिणी के हर्ष की सीमा नहीं रही । उसका हृदय उछलने लगा, मानो आनन्दातिरेक से उसके प्राण बाहर निकलने को तड़प रहे हो । बड़ी कठिनाई से हृदय स्थिर हुआ । आज उसके वर्षों का दुःख, शोक एवं संताप मिटा था । उसकी प्रसन्नता का तो कहना ही क्या ? हर्षातिरेक का शमन होने पर प्रद्युम्न ने माता से कहा--" माता ! अभी आप मेरे आगमन को छुपायें रखियं । मैं पिताश्री आदि को अरना आगमन, कुछ विशेष ढंग से बताना चाहता हूँ ।"
प्रद्युम्न की पिता को चुनौती और युद्ध
इसके बाद उसने एक माया पूर्ण रथ बनाया और माता को उसमें बिठा कर, शंख
यहीं था....... पर सुने कौन ?" सोतिया - डाह वामांगना को मनाने के लिए उसके पीछे
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