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________________ दुर्योधन की दुष्टता ४७३ कपकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककप "अरे, निर्लज्ज, कुरुकुल-कलंक, कुलांगार ! तेरा यह पापी-जीवन, इसके पूर्व ही समाप्त क्यों नहीं हो गया ? नीच ! इन शब्दों के उच्चारण के पूर्व तेरी जीभ ही क्यों न कट गई ? इस सभा में इतने पूज्य एवं आप्तजन बैठे हैं, तो क्या कोई इस अत्याचार को रोक भी नहीं सकता ? आज सभी पाप के पक्षधर हो गए हैं क्या ?यदि यहाँ कोई मेरा हितैषी होता, तो इस नीच का और इसके भाई दुःशासन का जीवन कभी का समाप्त हो गया होता।" कर्ण बोला- "द्रौपदी ! तू इतनी लाल-पीली क्यों होती है ? तू कितनी कुलीन है, यह सभी जानते हैं। कुलीन स्त्रियों का तो एक ही पति होता है। तू तो वेश्या के समान है । तेरे पाँच पति तो थे ही, अब एक और हो जाय तो बुराई क्या हो गई ? महाराजा दुर्योधनजी ने कोई अनुचित बात तो नहीं कही । तू रोष क्यों करती है ?" द्रोपरी की फटकार सुन कर दुर्योधन भड़का । उसने दुःशासन को आज्ञा दी; -“दुःशासन ! इस दासी की वाचालता अब तक बन्द नहीं हुई। यह अब तक अपने को महारानी एवं सम्राज्ञी ही मान रही है। इसका वस्त्र खिंच कर उतार ले, जिससे इसका सारा घमण्ड चर हो जाय ।" द्रौपदी चिल्लाती रही, आप्तजन दिग्मूढ़ हो देखते और शन्दों से वारण करते रहे । द्रौपदी ने कातर दृष्टि से पाण्डवों की ओर देखा अपनी लाज बचाने की प्रार्थना की । किंतु वे तो बचनबद्ध हो कर दास-भावना से दबे हुए थे। द्रौपदी ने दूसरों की आशा छोड़ कर धर्म का आश्रय लिया और एकाग्रतापूर्वक महामन्त्र का चिन्तन करने लगी। आत्मा में सतीत्व का बल था ही । वह देहभाव से परे हो कर स्मरण करने लगी। दुःशासन उठा गोर द्रौपदी के शरीर पर लिपटी हुई साड़ी का छोर पकड़ कर खिंचने लगा । द्रौपदी ध्यान में मग्न थी। चीर खिंचता गया, परंतु शरीर नग्न नहीं हो सका। खिंचते-खिचते साड़ी के ढेर लग गये, परंतु द्रौपदी के शरीर पर उतना वस्त्र लिपटा ही रहा, जितना वह पहिने हुए थी। सतीत्व का तेजपूर्ण चमत्कार देख कर सभी जन प्रभावित हुए । कोई प्रकट रूप से और कोई मन ही मन द्रौपदी के सतीत्व की प्रशंसा और दुष्टों की निन्दा कर दुत्कारने लगे। भीमसेन, कौरवों की कुटिलता को अधिक सहन नहीं कर सका । वह क्रोधाभिभूत हो कर भूमि पर भुजदण्ड फटकारता हुआ बोला; ___"सभाजनों ! जो दुष्ट अस्पृश्य द्रौपदी को जिन हाथों से घसीट कर सभा में लाया और उसे नग्न करने के लिए वस्त्र खिचा, उसके अपवित्र हाथों को मैं जड़ से नहीं उखाड़ डालूं और जिस अधम ने अपनी जंघा पर बिठाने का दुःसाहस बताया, उस जंघा को चूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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