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कर्ण का जाति-कुल
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हर्षातिरेक से कर्ण को छाती से लगा लिया और कहा
___ “वीर कर्ण ! वास्तव में तू सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय कलाविद् है । तेरी समता करने वाला संसार में कोई नहीं है। शत्रुओं के गर्व को दूर करने वाले हे वीर ! मैं तेरा अभिवादन करता हूँ। तू मेरा परम मित्र है । मेरा सर्वस्व तेरा है।"
दुर्योधन की आत्मीयता और प्रशंसा सुन कर कर्ण बोला-- .
"आपकी आत्मीयता का में पूर्ण आभारी हूँ। जब आपने मंत्री-सम्बन्ध जोड़ा है, तो इसे विकसित कर के जीवन-पर्यन्त निभाना होगा।"
--"मित्र ! मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारी और मेरी मैत्री जीवन-पर्यन्त अटूट रहेगी। मैं इसे शुद्ध अन्तःकरण से स्वीकार करता हूँ।"
दुर्योधन के उद्गार सुन कर कर्ण बोला--
"मित्रराज ! अब मैं निश्चिन्त हुआ । में स्वयं अर्जुन की प्रशंसा सहन नहीं कर मका था । इसीलिए मैने प्रदर्शन किया। मेरे मन का भार तो तब तक हलका नहीं होगा, जब तक कि मैं अर्जुन को युद्ध में पराजित नहीं कर दूं।"
कर्ण भी दुर्योधन के दल में सम्मिलित हो गया । वे सभी कर्ण की प्रशंसा और अर्जुन की निन्दा करने लगे । अर्जुन से यह अपमान सहन नहीं हुआ । उसने सिंहगर्जना करते हुए कहा;
"कर्ण ! लगता है कि तेरी मृत्यु निकट ही आ गई है । मैं चेतावनी देता हूँ कि नु मेरी कोपज्वाला में आहुति मत बन और मुझसे बच कर रहा कर।"
अर्जुन के वचनों ने कर्ण के अहंकार पर चोट की । वह आवेशपूर्वक बोला--
" अर्जुन ! तू किसे डराता है ? यदि मन में अपने बाहुबल का घमण्ड है, तो उठ, आ सामने । मैं तेरे अहंकार रूपी पर्वत को चूर्ण-विचूर्ण करने के लिए तत्पर हूँ।"
कर्ण के वचनों ने अर्जुन को युद्ध के लिए तत्पर बना दिया। उसने आचार्य की आज्ञा ले कर युद्ध के लिए रंगभूमि में प्रवेश किया। सभासद अब भी दो पक्ष में थे। एक पक्ष अर्जुन की विजय चाहता था, तो दूसरा कर्ण की। सभा स्तब्ध, शान्त और गभीर होकर उनकी भिड़न्त देखने लगी।
कर्ण का जाति-कुल अर्जुन और कर्ण दोनों वीर अखाड़े में आमने-सामने खड़े हो गये । दोनों हुँकार
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