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________________ ३२ तीर्थंकर चरित्र उत्तम गुणों से मुग्ध हो कर रावण ने उसका नाम 'भुवनालंकार' दिया। रावण राज्य-सभा में बैठा था। उस समय 'पवनवेग' नाम का विद्याधर उपस्थित हो कर कहने लगा;-- . "देव ! किष्किन्ध राजा के पुत्र सूर्यरजा और रुक्षरजा, पाताल-लंका में से किष्किन्धा नगरी गये थे। वहां यम के समान भयंकर यमराज के साथ उनका युद्ध हुआ। चिरकाल तक युद्ध करने के पश्चात् यम राजा ने दोनों को पकड़ कर बन्दीगृह में डाल दिया और उन्हें नरक के नैरयिक के समान भयंकर दुःख दे रहा है।" "महाराज ! वे आपके अनुचर--सेवक हैं, इसलिए पापात्मा यम से आप उनकी रक्षा करें । वे आपके हैं, इसलिए उनकी पराजय, आपकी ही मानी जायगी।" पवनवेग की बात सुन कर रावण ने तत्काल सैन्य सज कर प्रयाण करने की आज्ञा दी और स्वयं शस्त्र-सज्ज हो कर चला । किष्किन्धा नगरी के बाहर रावण ने यम का कारागृह देखा, जहां नरक के समान दुःख देने की कुछ व्यवस्था की गई थी। जैसे--- शिलास्फालन (बन्दी को शिला पर पछाड़ कर मारना) परशच्छेद (फरसे से काटना) आदि । यह देख कर रावण ने कारागृह के रक्षक नरकपालों को त्रासित कर भगा दिया और सभी बन्दियों को मुक्त कर दिया । नरकपाल भाग कर यमराज के पास गये। यम क्रोध में भभक उठा और युद्ध करने के लिए आ डटा । दीर्घकाल तक भयंकर युद्ध हआ। जब भीषणतम युद्ध से भी रावण का पराभव नहीं हो सका, तो यम एक भयंकर दंड उठा कर रावण पर प्रहार करने दौड़ा। रावण ने तत्काल क्षुरप्र बाण छोड़ कर उस दंड के टुकड़े कर दिए । यम ने रावण पर जोरदार बाण की वर्षा कर के उसे बाणों से ढक दिया, किन्तु रावण की युद्ध-चातुरी ने सभी बाणों को व्यर्थ कर दिया और खुद ने भयंकर बाण-वर्षा कर के यम के देह को जर्जर एवं बलहीन कर दिया । इस मार से यम की शक्ति नष्ट हो गई। वह यद्धभमि से निकल कर विद्याधर नरेश इन्द्र के पास, रथनपूर पहुँचा और निवेदन किया;-- "महाराज ! मैं अब यम कार्य करने के योग्य नहीं रहा। मेरी सारी शक्ति रावण ने नष्ट कर डाली । वह यम का भी यमराज निकला। अब आप यह पद किसी अन्य बलवान् को दीजिए । रावण से किष्किन्धा के नरकागार पर हमला कर के सभी नरकपालों को भगा दिया और सभी नारकों को नरक से निकाल कर स्वतन्त्र कर दिया। रावण महाबली है, साथ ही क्षात्रव्रत का पालक है । इसी से मैं जीवित रह कर आपकी सेवा में पहुँच सका, अन्यथा मेरा प्राणान्त हो जाता।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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