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________________ रावण का मन्दोदरी के साथ लग्न विभीषण को -- सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी- ये चार विद्या सिद्ध हुई । अनाहत देव ने रावण से क्षमा याचना की और रावण के लिए स्वयंप्रभ नाम के नगर की वहां रचना की। रावण अदि को विद्या सिद्ध होने का शुभ समाचार सुनकर, उनके माता, पिता, बहिन और अन्य स्वजन - परिजन हर्षोत्फुल्ल हो वहां आये । उन्होंने उनका सत्कार किया और उसी नगर में रहने लगे । इसके बाद रावण ने छ: उपवास का तप कर के दिशाओं को साधने में उपयोगी ऐसे 'चन्द्रहास' नाम के श्रेष्ठ खड्ग को सिद्ध किया । Jain Education International रावण का मन्दोदरी के साथ लग्न उस समय वैताढ्य पर्वत पर सुरसंगीत नामक नगर में 'मय' नाम का राजा राज करता था । उसकी हेमवती रानी से मन्दोदरी नाम की कन्या ने जन्म लिया | यौवनवय प्राप्त होने पर राजा, योग्य वर पाने का प्रयत्न करने लगा, किंतु योग्य वर नहीं मिलने पर चिन्ता करने लगा । तब उसके मन्त्री ने कहा; 'महाराज ! चिन्ता क्यों करते हैं । रत्नश्रवा का पुत्र दशानन योग्य वर है । वह महाबली तो है ही, साथ ही उसने अभी सहस्र विद्या सिद्ध कर ली हैं । देव भी उसे डिगाने में समर्थ नहीं हो सका । उसके समान उत्तम वर अभी तो कोई दिखाई नहीं देता । आप उसी के साथ राजकुमारी के लग्न कर दीजिए ।" राजा को मन्त्री की सलाह उचित लगी । राजा, अपनी रानी, परिवार और सेना के साथ पुत्री को ले कर स्वयंप्रभ नगर आये और रावण के साथ मन्दोदरी का लग्न कर दिया । एक बार रावण, मेघरव नाम के पर्वत पर क्रीड़ा करने गया । वहाँ के सरोवर में सामूहिकरूप से छह हजार खेचर युवती कन्याएँ स्नानोत्सव मना रही थी। उन सब ने रावण को देखा । उसके रूप-यौवन एवं बल को देख कर वे मुग्ध हो गई । उन सुन्दरियों में, सर्वश्री और सुरसुन्दर की पुत्री पद्मावती, मनोवेगा और बुद्ध की पुत्री अशोकलता तथा कनक और संध्या की पुत्री विद्युत्प्रभा मुख्य थी । उनको तथा अन्य विख्यात कुलोत्पन्न अनुरागिनी युवतियों का रावण ने गन्धर्व विधि से वरण किया । यह देख कर उन कुमारियों के रक्षकों ने जा कर उनके माता-पिता को अवगत करते हुए कहा -- "आपकी पुत्रियों के साथ लग्न कर के कोई एक पुरुष ले जा रहा है ।" यह सुनकर विद्याधरों का राजा अमरसुन्दर तथा उन कुमारियों के पिता के धाभिभूत हो कर रावण पर चढ़ दौड़े। इन्हें आता २६ " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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