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________________ रावण की विद्या-साधना २७ इस प्रकार निवेदन करके और माता-पिता की आज्ञा होते ही प्रणाम करके रावण अपने भाइयों के साथ अरण्य में गया। भयानक हिंस्र-पशुओं से व्याप्त वन में प्रवेश करके योग्य स्थान पर तीनों भाई खड़े हो गए और नासिका के अग्र-भाग पर दृष्टि स्थिर करके ध्यानस्थ हो गए। उन्होंने दो प्रहर के ध्यान से ही समस्त वांछित-फलदायिनी अष्टाक्षरी विद्या सिद्ध कर ली। इसके बाद षोडशाक्षर मन्त्र का दस सहस्रकोटि जाप प्रारम्भ कर दिया। उस समय जम्बूद्वीप का अधिपति ‘अनाहत' नाम का देव, अपनी देवियों के साथ वहां क्रीड़ा करने आया । उसने इन तीनों साधकों को साधना करते देखा । उसने इनकी साधना में बाधक बनने के लिए अपनी देवियों को उसके निकट--अनुकूल हो कर बाधा खड़ी करने का निर्देश दे कर भेजी। किन्तु देवियाँ उनके निकट आ कर, उनका रूप देखते ही मोहित हो गई और कहने लगी; "अरे ओ, ध्यान में जड़ के समान स्थिर बने हुए वीरों ! तुम हमारे सामने तो देखो । हम देवियाँ तुम्हारे वश में हो चुकी हैं । अब इसके सिवाय तुम्हें और क्या चाहिए? अब किस सिद्धि के लिए तुम तपस्या कर रहे हो ? छोड़ों इस साधना को और चलो हमारे साथ । हम तुमको संसार का सभी प्रकार का सुख प्रदान करेंगी । तुम हमारे साथ यथेच्छ क्रीड़ा करना।" इस प्रकार देवियों ने आग्रह किया। किन्तु वे तीनों भाई अपनी साधना में पूर्ण रूप से अडिग रहे और वे देवियाँ निराश हो गई। तब अनाहत देव ने स्वयं आ कर कहा ;-- "हे मुग्ध पुरुषों ! तुम क्यों व्यर्थ ही कष्ट उठा रहे हो ? तुम्हें किसने भ्रमजाल में फंसाया ? किस पाखंडी ने तुम्हें यह मिथ्या साधना बताई ? क्या होगा--इस कष्टक्रिया से ? छोड़ों इस निरर्थक काय-क्लेश को और जाओ अपने घर । अथवा तुम्हारी इच्छा हो वह मुझ-से माँग लो में साक्षात् देव तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। मैं तुम पर कृपावान हो कर तुम्हारी इच्छा पूर्ण कर दूंगा।" देव के उपरोक्त वचन भी व्यर्थ गए और वे तीनों भाई ध्यान में अटल रहे । उन्हें अपने ध्यान में स्थिर देख कर देव क्रोधित हुआ और कहने लगा;-- __ "अरे मूों मेरे जैसा कृपालु देव, तुम्हारे सामने होते हुए भी तुम अपनी हठ नहीं छोड़ते, तो तुम्हारा पाप तुम भुगतो।" इतना कह कर उसने अपने अनुचर व्यन्तरों को संकेत किया। व्यन्तरों ने उत्पात मचाना प्रारम्भ कर दिया । वे किलकारियें करते हुए विविध रूप बना कर उछल-कूद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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