SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शकुनी और पूतना का वध ३६९ नन्द ने यशोदा से कहा--"अब तुम कृष्ण को अकेला छोड़ कर कहीं मत जाया करो। शत्रुओं की छाया भी इस शिशु पर नहीं पड़नी चाहिए । कितना ही बड़ा कार्य हो, तुम्हें एक क्षण के लिए भी कृष्ण को अकेला नहीं छोड़ना है।" उस दिन से यशोदा, कृष्ण को अपने पास ही रखने लगी, फिर भी अवसर देख कर कृष्ण इधर-उधर खिसक कर भागने लगे। कृष्ण बड़े चञ्चल और चालाक थे। वे यशोदा की आँख बचा कर कहीं चले जाते और यशोदा उ-हें खोजती फिरती । कभी-कभी वे दौड़ कर दूर निकल जाते, तो यशोदा को भी उनके पीछे दौड़ना पड़ता । वह तंग आ जाती । कृष्ण की ऐसी चेष्टाओं से तंग आ कर यशोदा ने कृष्ण की कमर में एक रस्सी बाँधी और उस रस्सी को एक मूसल के साथ बांध दिया, जिससे कृष्ण कहीं बाहर नहीं जा सके । - सूर्पक विद्याधर का पौत्र अपने पितामह का वैर, वसुदेवजी के पुत्र से लेने की ताक में गोकुल आया और छुप कर अवसर देखने लगा । यशोदा, कुछ क्षणों के लिए पड़ोसी के घर गई थी। कृष्ण, माता को अनुपस्थित पा कर घर से निकले । उनके साथ रस्सी से बँधा हुआ मूसल भी घिसटता जा रहा था । खेचर-शत्रु ने उपयुक्त अवसर देखा और तत्काल अर्जुन जाति के दो वृक्षों के रूप में खड़ा हो कर कृष्ण के मार्ग में अड़ गया। उसका उद्देश्य था कि ज्योंहि कृष्ण इन दो वृक्षों के बीच हो कर निकले, उन्हें दोनों में भींच कर मार डाले । कृष्ण, उन वृक्षों के मध्य निकलने लगे । देव-सान्निध्य थे ही । देवसहाय्य से कृष्ण ने मसल को जोर लगा कर दोनों झाड़ों को उखाड़ कर तोड़ डाला । कोलाहल सुन कर नन्द और यशोदा दौड़े आए और कृष्ण को उत्सग में ले कर चूमने लगे । कृष्ण के उदर में दाम (रस्सी) बांधने के कारण उनका दूसरा नाम ' दामोदर ' प्रचलित हुआ। कृष्ण, ग्वाल-ग्वालिनों में अत्यन्त प्रिय थे । वे दिन-रात कृष्ण को उठाये फिरते । कृष्ण भी अपनी चपलता और बाल-चेष्टा से सभी गोप-गोपिकाओं के हृदय में स्थान पा चुके थे । जब यशोदा एवं गोपिकाएं, घृत निकालने के लिए दधि-मंथन करती, तो कृष्ण आँख बचा कर मटकी में हाथ डाल कर, मक्खन निकाल कर खाने लगते । कुछ मुंह में जाता, कुछ मुंह पर चुपड़ जाता और कुछ हाथों में लिपट जाता। यदि यशोदा मीठी झिड़की देती, तो मुंह में से हाथ निकाल कर उनके सामने करते हुए उन्हें भी खाने का कहते । देखने वाले सब हँस देते । उन्हें कोई रोकता नहीं था। उनकी बाल-लीलाओं से सभी गोपगोपिकाएँ प्रसन्न और आकर्षित थीं । यदि कृष्ण की चेष्टाओं से किसी की कुछ हानि भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy