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बलदेव का पूर्वभव और जन्म
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एकबार समुद्र विजयजी गजसभा में बैठे थे कि एक प्रोढ़ स्त्री अन्तरिक्ष में से आशीर्वाद देती हुई वहां उतरी। उसने बसुदेव से कहा-" मैं बालचन्द्रा की माता धनवती हूँ और अपनी पुत्री के लिए तुम्हें लिवाने आई हूँ। बालचन्द्रा तुम्हारे वियोग में दुःखी है । मुझ से उसकी वेदना सही नहीं जाती। अब आप चलिये।"
बसुदेव ने समुद्रविजयजी की ओर देखा । वसुदेवजी को जाने की अनुमति देते हुए समुद्रविजयजी ने कहा--" जाओ और उन्हें ले कर शीघ्र ही लौट आओ। अब कहीं रुक मत जाना ।" वसुदेव धनवती के साथ गगनवल्लभ नगर आये । समुद्रविजयजी, कंस के साथ अपने नगर में आये। वसुदेवजी ने बालचन्द्रा के साथ लग्न किये । इसके बाद वे अपनी पूर्व परिणित सभी पत्नियों को अपने-अपने स्थानों से ले कर, अनेक विद्याधरों के साथ विमान द्वारा शौर्यपुर आये । समुद्रविजयजी ने उत्सवपूर्वक वसुदेवजी और उनकी गनियों का नगर प्रवेश कराया।
बलदेव का पूर्वभव और जन्म
हस्तिनापुर नगर में एक सेठ था । उसके ललित नाम का एक पुत्र था। वह अपनी माता को अत्यंत प्रिय था ललित की माता पुनः गर्भवती हुई। वह गर्भ, माता के लिए अत्यंत संतापकारी हुआ। सेठानी ने उस गर्भ को गिराने के बहुत प्रयत्न किये, किंतु वह नहीं गिरर । यथासमय पुत्र का जन्म हुआ। सेठानी ने पुत्र को जनशून्य स्थान में डाल देने के लिए दासी को दिया । दासी जब बच्चे को फेंकने के लिए ले जा रही थी कि सेठ ने उमे देख लिया । दासी से अपनी पत्नी का अभिप्राय जान कर सेठ ने दासी से पुत्र ले कर गप्त रूप से अन्यत्र प्रतिपालन करने लगा। उसका नाम 'गंगदत्त' रखा । ललित माता से छुप कर गुप्त रूप से अपने छोटे भाई को देखने-खेलाने जाने लगा। उसे गंगदत से प्रीति जी । वसंतोत्सव के अवसर पर ललित ने पिता से आग्रह कर के गंगदत्त को भी भोजन करने के लिए बुलवाया। माता से छुपाये रखने के लिए गंगदत्त को पर्दे में रख कर भोजन कराने लगे । ललित और उसके पिता, पर्दे के बाहर बैठ कर भोजन करने लगे और अपने भोजन में से कुछ भाग पर्दे में रहे हुए गंगदत्त को भी देने लगे । वायुवेग से पर्दा उलटा और गंगदत्त पर उसकी माता की दृष्टि पड़ी । गंगदत्त को देखते ही माता का रोष उमड़ा । उसने गंगदत्त को खूब पीटा । फिर बाल पकड़ कर घसीटती हुई
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