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राक्षस को प्रतिबोध
" अहा, कितना अच्छा भोजन मिला है । इतना अच्छा भक्ष तो मुझे कभी मिला ही नहीं । आज में तुझे खा कर तृप्त होऊँगा ।"
राक्षस को देख कर दमयंती पहले तो भयभीत हुई, किंतु थोड़ी ही देर में संभल गई और धैर्य के साथ बोली;
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'राक्षस राज ! प्राप्त जन्म को सफल करना या निष्फल बनाना - यह मनुष्य के हाथ की बात है । मैने तो आर्हत्-धर्म की कुछ न कुछ आराधना कर ली है। इसलिए मुझे मृत्यु का भय लेशमात्र भी नहीं है, किंतु तुम सोच लो । तुम्हारे मन में दया नहीं है, क्रूरता ही । सोच लो कि इस क्रूरता का फल क्या होगा ? ऐसी क्रूर आत्माएँ ही नरक में स्थान पाती है । यदि मन में सद्बुद्धि हैं, तो अब भी समझो और सँभलो । और यह भी याद रखो कि मुझ पर तुम्हारी शक्ति बिलकुल नहीं चलेगी, इतना ही नहीं, मैं चाहूँ, तो तुम्हें यहीं राख का ढेर बना दूं ।"
दमयंती के धैर्य और साहस से
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मिलेंगे ?"
राक्षस प्रसन्न हुआ और कहने लगा-
-- " भद्रे ! मैं तेरे शील, साहस एवं धैर्य से प्रसन्न हूँ । बता, मैं तेरा कौन-सा हित करूँ ?"
'देव ! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो, तो बताओ कि मुझे मेरे पति कब
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देव ने अवधिज्ञान से उपयोग लगा कर कहा; --
'बारह वर्ष व्यतीत होने पर तुम्हें पति का समागम होगा। तुम्हारे पिता के घर वे स्वयं ही आ कर तुम्हे । तबतक तुम धीरज खो । यदि तुम कहो, तो मैं तुम्हें अभी तुम्हारे पिता के यहां पहुँचा । तुम्हें पाँवों से चलने और वन के विविध प्रकार के कष्टों को सहन करने की अब कोई आवश्यकता नहीं रही ।"
-- " भद्र ! तुमने मुझे पति-समागम का भविष्य बता इसी से प्रसन्न हूँ। में पर पुरुष के साथ नहीं जाती । तुम्हारा
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राक्षस बिजली के झबकारे के समान अदृश्य हो गया । बारह वर्ष के पति वियोग का भविष्य जानकर दमयंती ने अभिग्रह किया " जबतक पति का समागम नहीं हो, मैं सूबे रंग के वस्त्र नहीं पहनूंगी. गहने धारण नहीं करूंगी, ताम्बूल, विलेपन और विकृति का सेवन नहीं करूंगी।" इस प्रकार का अभिग्रह धारण कर के दमयंती ने वर्षाऋतु में सुरक्षित रहने के लिए एक पर्वत गुफा में निवास किया और स्मरण, स्वाध्याय, ध्यान और
* राक्षस भी दो प्रकार के होते हैं-देव और मनुष्य ।
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कर संतुष्ट कर दिया। में कल्याण हो ।"
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