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सती ने डाक-सेना को भगाया
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पितृगृह रह कर मैं पति की खोज भी करवा सकूँगी और धर्माचरण कर मनुष्य-जन्म सार्थक भी करती रहूँगी।" उसने मरने का संकल्प त्याग दिया। वह उठी और विदर्भ के मार्ग पर चलने लगी। उसे यत्रतत्र व्याघ्रादि हिंस्र-पशु मिलते और देखते ही गुर्राते, किंतु सती के धर्म-तेज के प्रभाव से वे उसके समीप नहीं आ सकते और दूर से ही टल जाते । विषधर भुजंग भी सती के मार्ग से दूर हट जाते । चिंघाड़ कर वेगपूर्वक आते हुए मदमस्त गजराज, पीठ फिरा कर टल जाते । वह अपनी धून में चलती रहती। पति के विचारों में इतनी तल्लीन कि वन की भयानकता का भी डर नहीं । बबूलादि कंटीले वृक्षों के काँटों से छिल कर, शरीर से निदले रक्त-प्रवाहों से सारा शरीर रंग रहा था और उस पर उड़ कर जमी हुई धूल चिपक कर अपर त्वचा का आभास दे रही थी। उसे न तो अपने शरीर का भान था, न भूख-प्यास का । वह एक ही धून में चली जा रही थी। चलते-चलते उसे एक बड़ा सार्थ मिल गया। वह विशाल सार्थ, किसी राजा की सेना के पड़ाव के समान बहुत दूर तक फैला हुआ था। सार्थ पर दृष्टि पड़ते ही दमयंती की विचार-शृंखला टूटी। उसने सोचा--"यह कोई व्यावसायिक सार्थ होगा । यदि यह मेरा सहायक बने, तो मार्ग प्रशस्त हो जाय ।
सती ने डाकू-सेना को भगाया
वह सार्थ का अवलम्बन लेने का विचार कर ही रही थी कि अचानक एक विशाल डाकू-दल ने आ कर उस सार्थ को घेर लिया। सारा सार्थ और सार्थ-रक्षक-दल उसके सामने नगण्य था । दमयंती सार्थजनों को आश्वासन देती हुई ऊँचे स्वर से बोली" बन्धुओं ! निर्भय रहो। यह डाक-दल तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। धीरज धरो।' इसके बाद वह डाकू दल को सम्बोधित करती हुई बोली;--
"दुराशयी दस्यु-दल के सदस्यों ! यदि तुम अपना हित चाहते हो, तो अपना पेरा उठा कर चले जाओ । यदि दुःसाहस किया, तो तुम्हें उस का फल भोगना पड़ेगा। जाओ, चले जाओ--यहाँ से।"
डाक-दल ने सती के वचनों की उपेक्षा की। कुछ सदस्यों ने तो व्यंगपूर्वक हँसी उड़ाई और उछलकूद कर आक्रमण करने के लिए शस्त्र सँभाले । वैदर्भी ने मनोयोगपूर्वक एकाग्र हो कर "हुँ" कार शब्द किया । वह हुँकार दस्युगण के कर्ण-कुहर को छेदता हुआ शूल की भाँति हृदय में उतर कर, असह्य पीड़ा करने लगा । दस्यु-दल घेरा छोड़ कर भागा।
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