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वानर वंश
श्रीकंठ भी स्वस्थान जाना चाहता था, किंतु कीर्तिधवल नरेश ने श्रीकंठ को रोकते हुए कहा--" तुम अभी यहीं रहो। क्योंकि वैताढ्य पर्वत पर तुम्हारे शत्रु बहुत हैं । इस राक्षस द्वीप के निकट वायव्य दिशा में तीन सौ योजन प्रमाण 'वानर द्वीप' है । इसके सिवाय अन्य बर्बरकुल, सिंहल आदि द्वीप मेरे ही हैं । वे इतने सुन्दर हैं कि जैसे स्वर्ग से उत्तर कर स्वर्गपुरी आई हो । उनमें से एक द्वीप में रह कर वहाँ का राज करो। इस प्रकार मेरे निकट ही रह जाओ। तुम्हें शत्रुओं से किसी प्रकार का भय नहीं होगा ।"
कीर्तिधवल के स्नेहपूर्ण शब्द सुन कर तथा उसके प्रेमपूर्ण व्यवहार से श्रीकंठ भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था । अतएव श्रीकंठ, वानर द्वीप में रह गया । कीर्तिधवल नरेश ने वानर द्वीप के किष्किन्ध गिरि पर बसी हुई किष्किन्धा नगरी में उसका राज्याभिषेक कर दिया ।
उस प्रदेश के वनों में बड़े-बड़े बन्दर रहते थे । वे बड़े ही सुन्दर थे । श्रीकंठ ने उन बन्दरों के लिए अमारि घोषणा करवाई। वे सभी के लिए अवध्य हो गए और राजा की रुचि के अनुसार वहां के लोग भी उन वानरों को अन्न आदि खिलाने लगे । उसकी सुन्दरता से आकर्षित हो कर विद्याधर लोग, अपने चित्रों में, लेप्यमय आलेखों में और ध्वज छत्र आदि के चिन्हों में वानर का चित्र बनाने लगे । इस रुचि के कारण वे विद्याधर भी 'वानर' कहलाने लगे ।
श्रीकंठ के, वज्रकंठ नाम का पराक्रमी पुत्र हुआ। वह युद्ध - प्रिय और बलवान था । श्रीकंठ, संसार से विरक्त हो गया। उसने अपने पुत्र वज्रकंठ को राज्य दे कर दीक्षा ले ली और चारित्र का पालन कर मुक्त हो गया। इसके बाद, वज्रकंठ आदि अनेक राजा हुए। भ. श्री मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थ में 'घनोदधि' नाम का राजा हुआ । उस समय लंकापुरी में ' तडित्केश' नाम का राजा था। घनोदधि और तडित्केश में स्नेह सम्बन्ध था । एक बार राक्षसाधिपति तडित्केश, अपनी रानियों के साथ नन्दन उद्यान में गया । वहाँ वे क्रीड़ा कर ही रहे थे कि एक वानर, वृक्ष पर से नीचे उतरा और निकट खड़ी हुई रानी को पकड़ कर और उसके वक्ष पर अपने नाखून चुभा कर रक्त रंजित कर दिया । बन्दर के उपद्रव से रानी चिल्लाई । राजा ने तत्काल बाण मार कर बन्दर को घायल कर दिया। वह घायल बन्दर, उस स्थल से हट कर वहाँ पहुँचा -- जहां एक तपस्वी मुनि कायुत्सर्गयुक्त ध्यान में मग्न थे । बन्दर उनके निकट जा कर गिर पड़ा। मुनिवर का ध्यान पूर्ण हुआ । उन्होंने बन्दर की अंतिम अवस्था जान कर उसकी भावना सुधारी और आर्त- रौद्र को दूर कर नमस्कार मन्त्र सुनाया । वानर उस शुभ अध्यवसाय में मर कर भवनपति देवों में
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