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________________ कंस-जन्म २७७ अन्धकवृष्णि राजा ने समुद्रविजय को राज्य दे कर दीक्षा ली और मुक्ति प्राप्त की। कंस-जन्म राजा भोजवृष्णि ने भी उग्रसेन को राज्यभार सौंप कर निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार की। उग्रसेनजी के धारिणी नाम की पटरानी थी। एकदा श्री उग्रसेनजी उद्यान की ओर जा रहे थे। उन्होंने एक तापस को देखा जो मार्ग के निकट एक वृक्ष के नीचे बैठा था। वह मासोपवास की तपस्या करता था। उसके यह नियम था कि-'पारणे के दिन भिक्षार्थ जाने पर, प्रथम जिस घर में जाय, उसी में से आहार मिले, तो लेना । यदि उस घर में आहार नहीं मिले, तो आगे दूसरे घर नहीं जा कर लौट आना और फिर मासोपवास प्रारंभ कर देना।' उग्रसेनजी ने तापस को अपने यहां पारणा करने का आमन्त्रण दिया और भवन में आने के बाद भूल गए । तापस पारणे के लिए उनके यहाँ गया, किंतु वह भोजन नहीं पा सका और लौट कर दूसरा मासखमण कर लिया। इसके बाद उग्रसेन नरेश फिर उद्यान में गए और तापस को देख कर उन्हें अपनी भूल स्मरण हो आई। उन्होंने तापस से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी और पारणे के दिन अपने यहां से ही भोजन लेने का फिर से निमन्त्रण दिया । तापस ने मान लिया। किंतु कार्य-व्यस्तता के कारण फिर भूल गए और तापस फिर बिना भोजन किए खाली लौट गया और तीसरा मासोपवास चालू कर दिया। राजा को पुनः अपनी भूल मालूम हुई और उसने पुनः तपस्वी से क्षमा याचना की और आग्रहपूर्वक पारणे का निमन्त्रण दिया जो स्वीकार हो गया। किन्तु भवितव्यता वश इस समय भी पारणा नहीं हो सका। तपस्वी ने तीसरी बार भी पारणा नहीं मिलने से राजा की भूल नहीं मान कर जानबूझ कर बुरी भावना से तपस्वी को सताना माना और क्रोधपूर्वक यह निदान कर लिया कि--" मेरे तप के प्रभाव से मैं भवान्तर में इस दुष्ट को मारने वाला बनूं । इस प्रकार निदान कर के उसने आजीवन अनशन कर लिया और मृत्यु पा कर उग्रसेनजी की पटरानी धारिणी देवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। गर्भ के प्रभाव से महारानी के मन में राजा के हृदय का मांस खाने' की इच्छा उत्पन्न हुई । यह इच्छा ऐसी थी कि जिसे मुंह पर लाना भी असंभव था। रानी दिनोदिन दुर्बल होने लगी। राजा ने रानी को खेद युक्त देख कर आग्रहपूर्वक कारण पूछा और अत्याग्रह के कारण रानी को अपना भाव बताना पड़ा । राजा ने मन्त्रियों से मन्त्रणा की और रानी को, दोहद पूरा करने का आश्वासन दिया। फिर राजा को एक अन्धेरे कमरे में लेटा कर, उनकी छाती पर खरगोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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