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स्वीकार किया । कुमार ने मुनिश्री को अपने साथ घर ला कर निर्दोष आहारादि प्रतिलाभे और आग्रहपूर्वक कुछ दिन वहीं रखे । मुनिराज के सत्संग से पति-पत्नी परम श्रमणोपासक हुए । कालान्तर में पिता द्वारा प्रदत्त राज्य का संचालन करने लगे । एकदा वसुन्धर मुनि विचरते हुए वहाँ पधारे। धर्मदेशना से प्रभावित हो कर धन नरेश ने अपने जयंत नाम के पुत्र को राज्य दे कर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या स्वीकार की । महारानी धनवती और नरेश के भाई धनदत्त और धनदेव भी दीक्षित हुए। धनमुनि ज्ञानाभ्यास के साथ उग्र तप करने लगे ! गुरु ने धनमुनि को गीतार्थ जान कर आचार्य पद पर स्थापित किया । आपने अपने सदुपदेश से अनेक राजाओं को प्रव्रज्या प्रदान की और अंत समय निकट जान कर, अनशन कर के एक मास में आयु पूर्ण कर, सोधर्म स्वर्ग में ऋद्धि सम्पन्न देव हुए। धनवती महासती, धनदत्त मुनि, घनदेव मुनि और अन्य साधु भी चारित्र का पालन कर सौधर्म स्वर्ग में देवपने उत्पन्न हुए ।
सौधर्म स्वर्ग के दैविक सुख भोगते हुए उनका यह दूसरा भव पूर्ण होने का समय निकट आ गया । इसी भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी के सूरतेज नगर में शूरसेन नाम का चक्रवर्ती राज था। उसकी विद्युन्मति नाम की रानी थी। धनकुमार देव का जीव अपनी आयु पूर्ण कर के विद्युन्मति के गर्भ में आया और पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'चित्रगति' दिया गया । वह भाग्यशाली बालक क्रमशः समस्त कलाओं में पारंगत हो, यौवनवय को प्राप्त हुआ ।
तीर्थंकर चरित्र
वैतादयगिरि की दक्षिणश्रेणी पर शिवमन्दिर नाम का नगर था । अनंगसिंह राजा वहाँ का शासक था । उसकी शशिप्रभा रानी की कुक्षि से, धनवती देवी का जीव, पुत्रीरूप में उत्पन्न हुआ । यह कन्या अनेक पुत्रों के बाद उत्पन्न हुई थी और रूप तथा शुभ लक्षणों से युक्त थी । उसका नाम 'रत्नवती' दिया गया । वह भी सभी कलाओं से युक्त, विदुषी हुई तथा यौवनवय प्राप्त हुई। उसके अंग-प्रत्यंग के विकास को देख कर राजा को याग्य वर प्राप्त करने की चिन्ता हुई । राजा ने भविष्यवेत्ता से पूछा । भविष्यवेत्ता ने कहा-
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महाराज ! राजकुमारी सौभाग्यवती है । उचित समय पर वर प्राप्त हो जायगा । जो युवक आपके हाथ से खड्ग रत्न छिन लेगा और जिस पर देव पुष्पवर्षा करेंगे, वहां महापुरुष राजकुमारी का वरण करेगा ।"
राजा इस भविष्यवाणी से प्रसन्न हुआ और पंडित को पारितोषिक दे कर विदा किया ।
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