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________________ चक्रवर्ती महापद्म १३ सुनने के लिए लोग जा रहे हैं"--नमुचि ने कारण बताया। ___ "आचार्य पधारे हैं, तो अपन भी चलें । उनके दर्शन और उपदेश का लाभ लें"राजा ने इच्छा व्यक्त की। "महाराज ! क्या रखा है--उस साधु के पास ? यदि आपको धर्मोपदेश सुनना है, तो मैं यहीं सुना देता हूँ'-नमुचि ने कहा। 'नहीं, महात्माओं का दशन करना और अनुभवजन्य उपदेश सुनना लाभदायक होता है । इसलिए हमें वहां चलना ही चाहिए।' "जैसी आपकी इच्छा । किंतु मेरी आप से एक विनती है कि आप वहां तटस्थ ही रहें । मैं उन्हें वाद में जीत कर निरुत्तर कर दूंगा"--मन्त्री नमुचि ने गर्वपूर्वक कहा । राजा अपने परिवार और मन्त्री के साथ सुव्रताचार्य के पास आये। नमुचि आचार्यश्री के सामने अंटसंट बोलने लगा। आचार्यश्री मौन रहे । आचार्य श्री को मौन देख कर नमुचि जिनधर्म की विशेष निन्दा करने लगा, तब आचार्यश्री ने कहा ;-- ___ "तुम्हारी भावना ही कलुषित है । कदाचित् तुम्हारी जिव्हा पर खुजली चल रही होगी।" आचार्यश्री की बात सुन कर उनका लघु-शिष्य विनय पूर्वक कहने लगा; " गुरुदेव ! विद्वत्ता के घमंड में मत्त बने हुए नमुचि से आप कुछ भी नहीं कहें । आपकी कृपा से मैं इसे पराजित कर दूंगा।" इस प्रकार गुरु से निवेदन कर के लघुशिष्य ने नमुचि से कहा;-- “आप अपना पक्ष उपस्थित करिये । मैं उसे दूषित करूँगा।" एक छोटे साधु की बात सुन कर नमुचि क्रोधान्ध हो गया और कटुतापूर्वक कहने लगा;-- "तुम सदैव अपवित्र रहने वाले पाखंडी हो और वैदिक-मर्यादा से बाहर हो । तुम्हें मेरे देश में रहने का अधिकार नहीं है । बस, यही मेरा पक्ष है।" “अपवित्र कौन है, यह तुम नहीं जानते"--लघु संत कहने लगे--" वास्तव में अपवित्र वे हैं जो संभोगी हैं । भोग अपने आप में अपवित्र है । फिर भोग का सेवन किस प्रकार पवित्र हो सकता है ? जो अपवित्र हैं, वे वेद-बाह्य एवं पाखंडी हैं । वैदिक सिद्धांत है कि--१ पानी का स्थान, २ ओखली ३ चक्की ४ चूल्हा और ५ मार्जनी (बुहारी--झाडू) ये पाँच गृहस्थों के पाप के स्थान हैं। जो इन पाँच स्थानों की नित्य सेवा करते रहते हैं, वे अपवित्र एवं वेद-बाह्य हैं और जो संयमी महात्मा, इन पाँच स्थानों से रहित हैं, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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