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तीर्थकर चरित्र
श्वासोच्छ्वास बन्द रहते ? चेतना लुप्त होती ? छह महीने तक ये निश्चल रहते ?"
इस युक्ति से राम प्रभावित हुए । अब उन्हें भी लक्ष्मणजी के जीवन में सन्देह होने लगा। फिर जटायु देव और कृतांत देव ने प्रकट रूप से रामभद्रजी को समझाया और स्वस्थान चले गए। इसके बाद राम ने लक्ष्मण के देह का अंतिम-संस्कार किया और शत्रुघ्न को राज्य दे कर संसार का त्याग करने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु शत्रुघ्न भी संसार से विरक्त थे, अतएव लवण के पुत्र अनंगदेव को राज्यासन पर स्थापित कर के मोक्ष. साधना में तत्पर हुए और विभीषण, शत्रुघ्न, सुग्रीव और विराध आदि नरेशों के साथ रामभद्रजी, भ. मुनिसुव्रतनाथ की परम्परा के महामुनि सुव्रताचार्य के समीप प्रवजित हुए। अन्य सोलह हजार नरेश भी दीक्षित हुए और तेतीस हजार रानियें भी श्रीमती साध्वीजी के पास दीक्षित हुई।
मुनिराज श्री रामभद्रजी ने चौदह पूर्व और द्वादशांगीरूप श्रुत का अभ्यास किया और विविध प्रकार के अभिग्रह से युक्त तपस्या करते हुए साठ वर्ष व्यतीत किये । इसके बाद एकल विहार-प्रतिमा स्वीकार की और निर्भय हो कर किसी पर्वत की गुफा में ध्यान करने लगे। उन्हें तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हो कर अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। वे लोक के रूपी पदार्थों को, हाथ में रही हुई वस्तु के समान प्रत्यक्ष देखने लगे । उन्होंने जान लिया कि--लक्ष्मण की मृत्यु, देवों के कपटयुक्त व्यवहार से हुई और वे पंकप्रभा नामक चतुर्थ पृथ्वी में दिखाई दिये। उन्हें देख कर मुनिराज श्री को विचार हुआ;--
"में पूर्वभव में धनदत्त था और लक्ष्मण मेरा छोटा भाई वसुदत्त था। वह बिना शुभ कृत्य किये मृत्यु पा कर भवभ्रमण करता रहा और अंत में मेरा छोटा भाई हुआ। इस भव में भी वह बिना ही धम आराधना के बारह हजार वर्ष का लम्बा जीवन पूर्ण कर के नरक में गया । कर्म का फल ही ऐसा है । इसमें उन दो देवों का कोई दोष नहीं।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए रामभद्रजी, कर्मों का दहन करने में विशेष तत्पर हुए और उग्र तप युक्त ध्यान करने लगे। एक बार वे तप की पूर्ति पर पारणा लेने के लिए 'स्यन्दनस्थल' नगर में गए । मुनिराज का चन्द्रमा के समान सौम्य एवं देदीयमान रूप देख कर नगरजन अत्यंत हर्षित हुए । स्त्रिये उन्हें भिक्षा देने के लिए भोजन-सामग्री ले कर द्वार पर आ खड़ी हुई । उस समय नगरजनों में इतना कोलाहल बढ़ा कि जिससे चमत्कृत हो कर हाथी, बन्धन तुड़ा कर भागने लगे। घोड़े, खूटे उखाड़ कर इधर-उधर दौड़ने लगे । रामभद्रजी तो उज्झित धर्म वाला (फेंकने योग्य) आहार लेने वाले थे। उन्हें इस प्रकार सामने ला कर दिया हुआ आहार नहीं लेना था : वे बिना आहार किये ही वन में लौटने
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