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________________ सतीत्व-परीक्षा और प्रव्रज्या २२१ सकती हूँ, न गृह-प्रवेश । मेरे निर्वासित होने का कारण उपस्थित है, तब तक मैं अयोध्या में नहीं आ सकती । मैं दिव्य करने को तैयार हूँ"-सीता ने कहा । सुग्रीवादि ने रामभद्रजी के पास आ कर सीता की प्रतिज्ञा सुनाई । राम उठे और सीता के निकट आ कर बोले; __ "तुम रावण के अधिकार में रही, तब रावण ने तुम्हारे साथ भोग नहीं किया हो और तुम सर्वथा पवित्र ही रही हो, इस बात की सच्चाई प्रकट करने के लिए तुम दिव्य करो। उसमें सफल हो जाओगी, तो मैं तुम्हें स्वीकार कर लूंगा।" -"ठीक है । मैं दिव्य करने को तत्पर हूँ। किन्तु आप जैसा न्यायी पुरुष मेरे देखने में नहीं आया कि जो बिना न्याय किये ही किसी को दोषी मान कर दण्ड दे दे और दण्ड देने के बाद, सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए तत्पर बने । यह राम-राज्य का अनूठा न्याय है। चलिये, मुझे तो दिव्य करना ही है"--कह कर सीता हंसने लगी। --"भद्रे ! मैं जानता हूँ तुम सर्वथा निर्दोष हो। किंतु लोगों ने तुम पर जो दोषारोपण किया, उसे मिटाने लिए ही में कह रहा हूँ।" --में एक नहीं, पाँचों प्रकार के दिव्य करने के लिए तत्पर हूँ। आप कहें, तो में--१ अग्नि में प्रवेश करूँ, २ मन्त्रित तन्दुल भक्षण करूँ, ३ विषपान करूँ, ४ उबलते हए लोह-रस या सीसे का रस पी जाऊँ और ५ जीभ से तीक्ष्ण शस्त्र को ग्रहण करूँ। जिस प्रकार आप संतुष्ट हों, उसी प्रकार करने के लिए मैं तत्पर हूँ, इसी समय"--सीता ने राम से निवेदन किया। उस समय नारदजी, सिद्धार्थ और समस्त जनसमूह ने एक स्वर से कहा " महादेवी सीता निर्दोष है, शुद्ध है, सती है, महासती है । हमें पूर्ण विश्वास है । किसी प्रकार के दिव्य करने की आवश्यकता नहीं है।" समस्त लोकसमूह की एक ही ध्वनि सुन कर रामभद्रजी बोले; -- " क्या कह रहे हो तुम लोग ? पहले सीता को कलंकिनी कहने वाला भी अयोध्या का जन-समूह ही था और आज सवथा निर्दोष घोषित करने वाला भी यही है । यदि इनके कहने का विश्वास कर लूं, तो बाद में फिर इन्हीं में से सदोषता का स्वर निकलेगा। दूसरों की निन्दा करने में इन्हें आनन्द आता है । वे यह नहीं सोचते कि इस प्रकार की निराधार बातों से किसी का जीवन कितना संकटमय हो जाता है । तुम लोगों के लगाये हुए कलंक को धोने और भविष्य में इस कलंक को संभावना को नष्ट करने के लिए सीता को अग्नि में प्रवेश करने की आज्ञा देता हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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