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________________ ८४ तीर्थकर चरित्र - - - - - - - - - - में लोकापवाद नहीं रहेगा''--मन्त्री ने कहा । महाराज ने मन्त्री का परामर्श मान कर एक सन्देशवाहक, बाहुबलीजी के पास भेजा। राजदूत तक्षशिला नगरी में आ कर राजभवन में गया और श्री बाहुबलीजी को प्रणाम किया। बाहुबलीजी राज-सभा में अनेक राजाओं और मन्त्रियों के साथ बैठे थे । श्री बाहुबलीजी ने राजदूत से भरत महाराज और विनितावासियों की कुशल-क्षेम के समावार पूछे । राजदूत ने भरत महाराज की छः खंड साधना, विनिता में हुए राज्याभिषेक और कुशल-मंगल के समाचार निवेदन करने के बाद नम्रतापूर्वक इस प्रकार कहा; -- "महाराज ! जिनकी सेवा में नौ निधान और चौदह रत्न हैं । हजारों देव जिनकी सेवा कर रहे हैं और छ: खंड जिनकी आज्ञा शिरोधार्य कर रहा है उन परम ऐश्वर्यशाली महाराजाधिराज के आनन्द और क्षेम का तो कहना ही क्या ? उनकी आज्ञा में चलने वालों के यहाँ भी सदा सुख-शान्ति रहती है । भरतेश्वर को इतनी उत्कृष्ट ऋद्धि प्राप्त हुई है, फिर भी उन्हें सुख का अनुभव नहीं हुआ। जिस गृहपति के घर आनन्दोत्सव हो और कुटम्ब-परिवार के दूर-दूर के लोग भी जिस उत्सव में सम्मिलित हों, उस मंगल प्रसंग पर उसका भाई ही सम्मिलित नहीं हो कर पृथक् रह जाय, तो उस गृहपति को सुखानुभव कैसे होगा--महाराज ?" लगातार साठ हजार वर्ष तक भरतेश्वर ने छह खंड की साधना की और उसकी सिद्धि के उपलक्ष में राज्याभिषेक का महोत्सव किया । उस उत्सव में दूर-दूर तक के लोग आये, देव और इन्द्र तक आये, किन्तु उनके अपने भाई ही उसमें सम्मिलित नहीं हुए। वे आप सभी की प्रतीक्षा कर रहे थे । आपके नहीं आने से श्री भरत महाराज के मन में अशान्ति रहना स्वाभाविक ही है। महाराजा ने अपने भाइयों को बुलाने के लिए दूत भेजे, कित कोई नहीं आया और आपके अतिरिक्त सभी भाइयों ने भगवान् की सेवा में जा कर सर्वविरति स्वीकार कर ली । उनकी ओर से भरत महाराज, बन्धु-प्रेम से वञ्चित रह गये। अब आप एक ही भाई उनके हैं, जिनसे वे भ्रातृ-प्रेम की आशा रखते हैं। आप ही उनका बन्ध-प्रेम सफल कर सकते हैं। इसलिए आप वहाँ पधार कर उनके बन्धु-प्रेम को सफल करने का कष्ट करें।" "महाराजाधिराज भरतेश्वर आपके ज्येष्ठ बन्धु हैं । वे आपके लिए पूज्य हैं--सेव्य हैं। आपका कर्तव्य है कि आप बिना बुलाये ही उनकी सेवा में उपस्थित हो कर उनके आज्ञाकारी बने । आपके नहीं पधारने और चक्रवर्ती महाराजा की आज्ञा को स्वीकार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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