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________________ भ० ऋषभदेवजी -- प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजा की दिग्विजय ७७ उसके साथ ही उसकी सभा के सभासद तथा अन्य अनुचर देव भी कोपायमान हो कर अपने-अपने शस्त्र ले कर उठे और उस बाण को देखने के लिए आगे बढ़े। इतने में अमात्य ने बाण को ले कर देखा । उस पर निम्नलिखित अक्षर अंकित थे; " मैं भरत क्षेत्र के इस अवसर्पिणी काल के आदि तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती भरत, मागध तीर्थाधिपति को आदेश करता हूँ कि तुम मेरा आधिपत्य स्वीकार कर के मेरे शासन में रहो। इसी में तुम्हारा हित है ।' इस प्रकार का उल्लेख पढ़ कर देव ने विचार किया और अवधिज्ञान का उपयोग कर के निश्चयपूर्वक बोला " सभासद्गण ! उत्तेजित होने की बात नहीं है । भरत क्षेत्र का जो चक्रवर्ती सम्राट होता है, उसकी आज्ञा में हमें रहना ही पड़ता है । इस समय महाराजाधिराज भरत, आदि चक्रवर्ती के रूप में शासन प्रवर्तन करने निकले हैं । इन्हें चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हुई है। हमें इनकी सेवा में उपस्थित हो कर उनकी अधीनता स्वीकार करनी चाहिए। इसी में हमारा हित है । वे समुद्र में हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमें मूल्यवान् उत्तम भेंट ले कर उनकी सेवा में चलना चाहिए । यह बात सुन कर सभी लोग शान्त हुए । मागधतीर्थ का अधिपति बहुमूल्य भेंट, मागध तीर्थ का जल तथा वह बाण ले कर भरत महाराज की सेवा में आया और प्रणाम कर के भेंट उपस्थित की तथा चक्रवर्ती महाराज की अधीनता स्वीकार की । महाराजा भरतेश्वर ने भेंट स्वीकार करते हुए मागधतीर्थाधिपति का सत्कार किया। इसके बाद वे अपनी छावनी में आये और तेले का पारणा किया । मागधदेव स्वस्थान गया । महाराजा ने मागधतीर्थ साधना के उपलक्ष में अठाई महोत्सव किया । , महोत्सव पूर्ण हो चुकने पर सुदर्शन चक्र आकाश मार्ग से दक्षिण दिशा की ओर चला और चक्रवर्ती ने भी सेना सहित उसका अनुगमन किया । कालान्तर में ' वरदाम' नामक तीर्थ के पास पहुँचे। यहाँ भी भरतेश्वर ने तेले का तप किया और वरदाम तीर्थाधिपति को साधने के लिए नामाङ्कित बाण फेंका । मागध तीर्थ के समान वरदाम तीर्थं भी चक्रवर्ती के अधिकार में आया । इसी प्रकार समुद्र की पश्चिम दिशा के ' प्रभास' नामक तीर्थ को अधिकार में लिया । 11 इसके बाद समुद्र के दक्षिण की ओर सिन्धु नदी के किनारे आये और सिन्ध देवी की साधना के लिए तेले का तप किया । सिन्धु देवी का आसन चलायमान हुआ। देवी ने अवधिज्ञान से भरतेश्वर का अभिप्राय जाना और बहुमूल्य रत्न, रत्न जड़ित सिंहासन तथा आभूषणादि ले कर सेवा में उपस्थित हुई और चक्रवर्ती का शासन स्वीकार किया । भरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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