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________________ भ० ऋषभदेवजी-- सुनन्दा का योग--विवाह चक्र, स्वस्तिक आदि मंगल चिन्ह, पगतलियों में अंकित थे। ___जिस प्रकार बहुमूल्य रत्नों से युक्त रत्नाकर, सेवन करने के योग्य होता है, उसी प्रकार उत्तमोत्तम एवं असाधारण लक्षणों से युक्त प्रभु भी देवों और मनुष्यों के लिए सेवा करने योग्य थे। सनन्दा का योग एक बाल युगल, ताड़-वृक्ष के नीचे खेल रहा था । भवितव्यतावश ताड़ का पड़ा फल टूट कर पुरुष-बालक पर पड़ा और वह मर गया। । बालिका अकेली रह गई । वह दिग्मूढ़ हो गई। उसके माता-पिता उसे ले गये। उस बालिका का नाम 'सुनन्दा' रखा । उसके माता-पिता भी थोड़े ही दिनों में मर गए। बालिका अकेली रह गई। वह इधर-उधर भटकने लगी। वह अत्यन्त सुन्दरी थी। कुछ युगल उस अकेली भटकती हुई बालिका को साथ ले कर अपने कुलपति श्री नाभिराजा के पास आये । श्री नाभिराजा ने उसे श्री ऋषभदेव की पत्नी घोषित करते हुए स्वीकार कर ली। विवाह एकदा सौधर्मेन्द्र, भगवान् को विवाह के योग्य जान कर भगवान् के पास आया और सुनन्दा तथा सुमंगला के साथ विवाह कर के, विवाह सम्बन्धी लोक-नीति प्रचलित करने का निवेदन किया। प्रभु के मौन रहने पर शकेन्द्र ने मनोगत भाव जाने । भगवान को तिरयासी लाख पूर्व तक उदय भाव के अधीन-गृहवास में रहने का योग था। शकेन्द्र ने देवी-देवताओं को भगवान् का विवाह रचाने की आज्ञा दीx । देवांगनाएँ वैवाहिक मंगल + युगल का यह अकाल मरण आश्चर्यजनक माना गया है, क्योंकि अकर्म-भूमि के मनुष्य परिपूर्ण अवस्था भोग कर ही मरते हैं। ४१-उस समय अकर्म-भूमि के भाव चल रहे थे । विवाह करने की रीति ही नहीं थी। एक माता-पिता से साथ जन्मे हए भाई-बहिन ही अवस्था पा कर पति-पत्नी हो जाते थे। श्री ऋषभदेव के विवाह से ही यह विधि प्रचलित हई । उस समय कर्म-भूमि के भावों का उदय चल रहा था। . २ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य ने जो विवाह-विधि बताई, उसमें तो आचार्यश्री के समय के विधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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