________________
भ• ऋषभदेवजी ४ कुलकरों की उत्पत्ति
३५
लगा । उन्हें इस प्रकार फिरते देख कर अन्य युगल विस्मित हुए। उन्होंने उसका नाम 'विमलवाहन' रखा । विमल वाहन जातिस्मरण ज्ञान के कारण पूर्वभव में पाली हुई न्यायनीति को जानने लगा। काल-परिवर्तन के साथ द्रव्य-क्षेत्रादि में भी परिवर्तन आने लगा। कल्पवृक्षों का प्रभाव मंद होने लगा। उनसे प्राप्त खाद्यादि सामग्री थोड़ी उतरने लगी।
मद्यांगवृक्ष से पेय रस थोड़ा, स्वाद में पूर्व की अपेक्षा मंद और विलम्ब से मिलने लगा । इसी प्रकार सभी प्रकार के कल्पवृक्षों के फल थोड़े, स्वाद में हीन और विलम्ब से प्राप्त होने लगे । काल-प्रभाव से युगलिकों में भी ममत्व भाव जाग्रत होने लगा । एक दूसरे के कल्पवृक्षों पर ललचाने लगे। परस्पर खिंचाव उत्पन्न होने लगा और विवाद खड़े होने लगे । ऐसी स्थिति में व्यवस्था बनाये रखने और शान्तिपूर्वक रहने के लिए किसी व्यवस्थापक की आवश्यकता हुई। सभी युगलिकों ने यह भार विमलवाहन को सौंपा और उसे अपना कुलकर * माना । विमलवाहन ने सभी युगलिकों में कल्पवृक्षों का विभाजन कर दिया । यदि कोई नियम का उल्लंघन करता, तो विमलवाहन उसका न्याय करता और नियम तोड़ने वाले को 'ह' कार शब्द से दण्डित करता । वह कहता कि- "हा, तुम दुष्कृत्य करते हो,” बस, इतना कहना भी उस समय मृत्युदण्ड से बढ़ कर माना जाता था।
विमलवाहन की आयु छ: मास शेष रहने पर उसकी युगलिनी ने एक युगल को जन्म दिया। उनका नाम (चक्षष्मान' और 'चन्द्रकान्ता' रखा। वे ८०० धनष ऊँचे और असंख्य पूर्व आयु वाले थे। वे श्याम वर्ण वाले थे । छ: महीने तक उनका लालन-पालन कर के विमलवाहन मर कर भवनपति का सुवर्णकुमार देव हुआ और युगलिनी नागकुमार जाति के भवनपति देवों में उत्पन्न हुई।
चक्षुष्मान् भी विमलवाहन के समान 'ह' कार नीति से ही युगलिक मर्यादा का संचालन करने लगा। वह दूसरा कुलकर हुआ। उसकी आयु के छः माह शेष रहे, तब युगल उत्पन्न हुआ। उनका नाम 'यशश्वी' और 'सुरूपा' रखा । यशश्वी भी अपने पिता के बाद युगलिक मर्यादा निर्वाहक हुआ। वह तीसरा कुलकर हुआ। किंतु उस समय तक विषमता में वृद्धि हो गई थी। लोग 'ह' कार दण्ड-नीति की उपेक्षा करने लगे थे, तब यशश्वी कुलकर (कुलपति) ने 'म' कार नीति चलाई । अल्प अपराध वाले को हकार और विशेष अपराध वालों को मकार=" मत कर' तथा महान् अपराध वाले को हकार-मकार दोनों प्रकार से दण्डित करने लगा।
• कुलकर-कुलपति, स्वामी, व्यवस्थापक ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org