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________________ ४०० तीर्थङ्कर चरित्र समता का अभाव । जहाँ समता है, वहाँ संसार की वृद्धि नहीं है। जो प्राणी उत्तरोत्तर आनन्द को उत्पन्न करने वाले समता रूपी जल में स्नान करता है, उसके राग-द्वेष रूप मल तत्काल धल जाते हैं। प्राणी, जिन कर्मों को कोटी जन्म तक तीव्र तप का आचरण कर के भी नष्ट नहीं कर सकता, उन कर्मों को समता का अवलम्बन कर के आधे क्षण में ही नष्ट कर देता है। जीव और कर्म--ये दोनों आपस में मिल कर एकमेक हो गए हैं। इन्हें ज्ञान के द्वारा जान कर आत्मनिश्चय करने वाला साधु पुरुष, सामायिक रूपी सलाई से पृथक्-पृथक कर देता है। योगी पुरुष सामायिक रूपी किरण से रागादि अन्धकार का विनाश कर के अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन करते हैं। जिन प्राणियों में स्वार्थ के कारण नित्य वैर-जाति वैर होता है, वे प्राणी भी समता के सागर ऐसे महान संत पुरुष के प्रभाव से परस्पर स्नेह से रहते हैं। समता उसी विशिष्ट आत्मा में निवास करती है, जो सचेतन या अचेतन--ऐसी किसी भी वस्तु में इष्ट अनिष्ट = अच्छे-बुरे का विचार कर के मोहित नहीं होती । कोई अपनी भुजाओं पर गोशीर्ष चन्दन का लेप करे, या तलवार से काट डाले, तो भी जिसकी मनोवृत्ति में भेद उत्पन्न नहीं होता, उसी पुरुष में अनुपम समता के दर्शन होते हैं । स्तुति करने वाले, प्रशंसा करने वाले अथवा प्रीति रखने वाले पर और क्रोधान्ध, तिरस्कार करने वाले या गालियां देने वाले पर जिस महानुभाव का चित्त समान रूप से रहता है, उस पूरुष में ही समता का निवास रहता है। जिसने मात्र समता का ही अवलम्बन लिया है, उसको किसी प्रकार के होम, जप और दान की आवश्यकता नहीं रहती । उसको समता से ही परम निवृति = मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। अहा ! समता का कितना अमूल्य लाभ ! बिना प्रयत्न ही शान्ति के ऐसे महान् लाभ को छोड़ कर प्रयत्न-साध्य और क्लेशदायक ऐसे रागादि की उपासना क्यों करनी चाहिए ? बिना प्रयत्न के सहज प्राप्त ऐसी मनोहर सुखकारी समता ही धारण करनी चाहिए । स्वर्ग और मोक्ष तो परोक्ष होने के कारण गुप्त है, किन्तु समता का सुख तो स्वसंवेद्य = खुद के अनुभव का होने से प्रत्यक्ष है। यह किसी से छुपाया नहीं जा सकता। कवियों के कहने से रूढ़ बने हुए अमृत पर मोहित होने की आवश्यकता ही क्या है? जिसका रस खुद के अनुभव में आ सकता है, ऐसे समता रूपी अमृत का ही निरन्तर पान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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