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________________ ३८८ तीर्थकर चरित... पूर्व-भव के मित्रों को देखा और भविष्य का विचार कर के अपने सेवकों को आज्ञा दी कि"अशोक वाटिका में एक भव्य मोहनगृह का निर्माण करो। वह अनेक खंभों से युक्त हो। उसके मध्यभाग में छः कमरे हों। प्रत्येक कमरे में एक जालगृह (जाली लगा हुआ बैठक का छोटा कमरा) हो और उसमें एक उत्तम सिंहासन रखा हो। यह मोहनपर अत्यंत रमणीय एवं मनोहर बनाओ।" राजकुमारी मल्लि की आज्ञा होते ही काम प्रारम्भ हो गया और थोड़े ही दिनों में उनकी इच्छानुसार भव्य मोहनघर तय्यार हो गया । उसके बाद राजकुमारी ने ठीक अपने ही अनुरूप और अपने ही समान रूप-लावण्यादि उत्तमताओं से युक्त एक पोली स्वर्ण प्रतिमा बनवाई और एक पीठिका पर स्थापित करवा दी । उस प्रतिमा के मस्तक पर एक छिद्र बनवा कर कमलाकार ढक्कन लगवा दिया। वह प्रतिमा इस कौशल से बनवाई थी कि देखने वाला व्यक्ति उसे प्रतिमा नहीं समझ कर, साक्षात् प्रसन्नवदना राजकुमारी ही समझे। प्रतिमा बनवाने के बाद भगवती मल्लिकुमारी, जो उत्तम भोजन करती, उसका एक ग्रास उस प्रतिमा के मस्तक पर रहे हुए छिद्र में डाल कर ढक्कन लगा देती। इस प्रकार वे प्रतिदिन करती रहती । वह भोजन का ग्रास प्रतिमा में पड़ा हुआ सड़ता रहता। उसमें असह्य दुर्गन्ध उत्पन्न होती रहती । वह सड़ांध दिनोदिन तीव्रतम होती गई। इस प्रकार यह निमित्त तय्यार होने लगा । मातापितादि इस क्रिया को देख कर विचार करते--'यह राजदुलारी, अपनी उत्तमोत्तम प्रतिमा में भोजन डाल कर क्यों सड़ा रही है ?' फिर वे सोचते--'अवश्य इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है । हमारी बेटी ऐसी नहीं, जो व्यर्थ ही ऐसा काम करे । यह अलौलिक आत्मा है । इसमें अवश्य ही कोई उत्तम उद्देश्य है। इसके द्वारा भविष्य में कोई उलझी हुई गुत्थी सुलझने वाली है । यथासमय इसका परिणाम सामने आ जायगा।" इस प्रकार सोच कर वे संतोष कर लेते । पूर्वभव के मित्रों का आकर्षण (१) महात्मा महाबलजी के साथी 'अचल' अनगार का जीव, अनुत्तर विमान से च्यव कर इसी भरत क्षेत्र में कौशल देश के साकेतपुर नगर के शासक के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और 'प्रति पुद्धि' नाम का इक्ष्वाकुवंशीय नरेश हुआ। महाराज प्रतिबुद्धि के पद्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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