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तीर्थङ्कर चरित्र
महाबल नरेश ने युवराज बलभद्र को राज्याधिकार दिया। इसी प्रकार अन्य राजाओं ने भी अपने कुमारों को राज्य दिया। इसके बाद महाबल नरेश अपने छ: मित्रराजाओं के साथ महात्मा वरधर्म मुनिजी के पास दीक्षित हुए ।
महाबल मुनि का मायाचार
प्रवजित होने के बाद सातों मुनिराजों ने यह प्रतिज्ञा की कि--"हम सातों ही एक ही प्रकार की तपस्या करते रहेंगे। किसी एक की इच्छा जो तप करने की होगी,
तप हम सब करेंगे।" इस प्रकार निश्चय कर के सभी साधना में प्रवृत्त हो गए। साधना करते हुए महाबल मुनिराज के मन में विचार उत्पन्न हुआ---
" मैं संसार में सब से ऊँचा था। मेरे मित्र राजाओं में मेरा दर्जा ऊँचा रहा और यहाँ भी ये मेरा विशेष आदर करते हैं। अब यदि मैं तपस्या भी सब के समान ही करूँगा, तो आगे पर समान कक्षा मिलेगी। इसलिए मुझे इन छहों मुनियों से विशेष तप करना चाहिए. जिससे स्वर्ग में भी मैं इनसे ऊँचे पद पर रहूँ।"
इस प्रकार विचार कर वे गुप्त रूप से अपना तप बढ़ाने लगे । जब पारणे का समय आता और अन्य मुनि पारणा ला कर श्री महाबल मुनिराज को पारणा करने का कहते, तो वे मायापूर्वक कहते--" आज तो मुझे भूख ही नहीं है, आज मेरे मस्तक में पीड़ा हो रही है। आज मेरे पेट में दर्द है"--इत्यादि बहाने बना कर पारणा नहीं करते और तपस्या बढ़ा लेते । इस प्रकार मायाचार से वे अपने छहों मित्र मुनिवरों को ठगते । इस मायावार से उन्होंने 'स्त्रीवेद' का बन्ध कर लिया। इस माया के अतिरिक्त उनकी साधना उच्च प्रकार की थी। उच्च परिणाम, उग्रतप एवं अरिहंत आदि २० पदों की आराधना करते हुए उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचित बन्ध भी कर लिया। उनकी संयम और तप की आराधना बढ़ती ही गई । अंत समय निकट जान कर सातों ही मुनिवरों ने अनशन किया। उनका संथारा दो मास तक चला और अप्रमत्त अवस्था में ही बायु पूर्ण कर 'जयंत' नाम के तीसरे अनुत्तर विमान में अहमिन्द्रपने उत्पन्न हुए। उन सब की आयु बत्तीस सागरोपम प्रमाण हुई।
*आचार्य श्री हेमचन्द्र जी ने 'विशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' में 'वैजयन्त' नामक दूसरा अनुतर विमान बतलाया । किन्तु ज्ञातासूत्र में 'जयन्त' ही लिखा है।
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