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तीर्थकर चरित्र
भरत क्षेत्र के वसंतपुर नगर में अपने वंश का उच्छेद करने वाला एक 'अग्निक' नाम का लड़का था। एक बार वह विदेश गया। वह अकेला भटकता हुआ तापसों के आश्रम में चला गया। आश्रम के वृद्ध कुलपति ने उसे अपने पुत्र के समान रखा और उसे तापस बनाया। वह जमदग्नि' के नाम से प्रख्यात हुआ। उग्र तप करते हुए वह स्वयं अपने दुःसह तेज से विशेष विख्यात हुआ।
परशुराम की कथा
वैश्वानर नाम का देव पूर्वभव में श्रावक था और धन्वन्तरी नाम का देव, तापसभक्त था। दोनों देवों में परस्पर वाद छिड़ गया। वैश्वानर कहता था कि ' आहेत धर्म यथार्थ एवं सत्य है' और धन्वन्तरी कहता था तापस धर्म उत्तम है। दोनों ने परीक्षा करने का निश्चय किया। वैश्वानर ने कहा- तू किसी नवदीक्षित निग्रंथ की भी परीक्षा करेगा, तो वह सच्चा उतरेगा। किंतु तेरे किसी प्रोढ़ साधक की परीक्षा ली जायगी, तो वह टिक नहीं सकेगा।' पहले दोनों देव निग्रंथ की परीक्षा करने आये । मिथिलानगरी का पद्मरथ राजा भाव-यति था। वह प्रव्रज्या ग्रहण करने के उद्देश्य से मिथिलानगरी से पादविहार कर चम्पानगरी में, भ. वासुपूज्य स्वामी के पास जा रहा था। दोनों देव उसके पास आये और उसके सामने भोजन और पानी के पात्र रख कर, भोजन करने का निवेदन किया । यद्यपि पद्मरथ भूख और प्यास से पीड़ित था, तथापि अकल्पनीय होने के कारण भोजन और पानी ग्रहण नहीं किया। देवों ने मार्ग में कंकरों को इतने तीक्ष्ण बना दिये कि मार्ग चलना कठिन हो गया और मुनि के कोमल पांवों में से रक्त बहने लगा किन्तु वे विचलित नहीं हुए । थोड़ी दूर चलने पर उन्हें एक सिद्धपुत्र का रूप धारण किया हुआ देव सामने आ कर कहने लगा;--" हे महाभाग ! अभी तो तुम्हारा जीवन बहुत लम्बा है और खानेपीने, भोग भोगने और संसार सुख का आस्वादन करने के दिन है । अभी से योग लेने की क्या आवश्यकता हुई ? जब भोग से तृप्त हो जाओ और इन्द्रियाँ निर्बल हो जाय, तब साधु बनना । भरपूर युवावस्था में साधु बन कर, प्राप्त मनुष्य-भव को व्यर्थ गँवाना बुद्धिमानी नहीं है।" भावमुनि पद्मरथ जी ने कहा;--"भाई ! जीवन का क्या भरोसा ? साधना में विलम्ब करना बुद्धिमानी नहीं है। यदि जीवन लम्बा हुआ, तो धर्म-साधना बहुत होगी।
' . + संयम से गिरा हुआ-पड़वाई।
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