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________________ चक्रवर्ती पद अच्युत स्वर्ग का २२ सागरोपम का दीर्घ एवं सुखमय जीवन पूर्ण कर के वे छहों जीव, अनुक्रम से मनुष्य-भव में आये । वे जम्बूद्वीप में पूर्व-विदेह के पुष्कलावती विजय में, लवण समुद्र के निकट, पुंडरी किनी नगरी के राजा वज्रसेन की धारणी, रानी की कुक्षि से अनुक्रम से पाँव पुत्र उत्पन्न हुए। १जीवानन्द वैद्य का जीव वज्रनाभ नाम का पहला पुत्र हुआ २ राजपुत्र का जीव, दूसरा पुत्र हुआ। उसका नाम बाहु था ३ सुबाहु नाम का तीसरा मन्त्री-पुत्र हुआ, ४ चौथा पीठ नाम वाला श्रेष्ठि-पुत्र हुआ, ५ सार्थवाह पुत्र का महापीठ नाम दिया। इनके अतिरिक्त केशव का जीव 'सुयशा' के नाम से दूसरे राजा का पुत्र हुआ। यह सुयशा बचपन से ही वज्रनाभ के आश्रय में रहने लगा। ये छहों राजपुत्र साथ ही खेलते और क्रीड़ा करते बढ़ने लगे । विद्याभ्यास करने में उनकी बुद्धि तीव्र थी। वे कलाचार्य के संकेत मात्र से समझ जाते थे। वे वीर योद्धा और साहसी थे। _वज्रनाभ इन सभी में अत्यधिक प्रतिभाशाली थे। इनके गर्भ में आते समय माता ने चौदह महा स्वप्न देखे थे। समय परिपक्व होने पर लोकान्तिक देवों ने पृथ्वी पर आ कर महाराज वज्रसेन से निवेदन किया-'भगवन् ! अब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर के, चतुर्गति रूप संसार महावन में भटकते हुए भव्य जीवों का उद्धार करें।' वज्रसेन महाराज ने वर्षीदान दिया और वज्रनाभ युवराज को राज दे कर स्वयमेव दीक्षित हो गए। घातीकर्मों का नाश होने पर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर तीर्थकर हुए। इधर वज्रनाभ महाराज की आयुधशाला में चक्ररत्न का प्रवेश हुआ और दूसरे १३ रत्न भी प्राप्त हुए । महाराधिराज वज्रनाभ, चक्रवर्ती नरेन्द्र हुए । राजकुमार सुयशा उनका सारथी हुआ। पुण्य और समृद्धि की वृद्धि के साथ चक्रवर्ती सम्राट की धर्मभावना भी बढ़ने लगी। जिस प्रकार सुगन्ध से आकर्षित हो कर भ्रमर, कमल-पुष्प के पास आते हैं, उसी प्रकार प्रबल पुण्य के उदय से चक्रवर्ती को चौदह रत्न के अतिरिक्त नव-निधि भी प्राप्त हो गई। महाराजाधिराज वज्रनाभ की आज्ञा सारे पुष्कलावती विजय पर चलने लगी। पुण्यानबन्धी-पुण्य के उदय से वज्रनाभ महाराज के पुण्य-वृद्धि के साथ धर्म-वृद्धि भी होने नगी। उनका वैराग्यभाव बढ़ने लगा । कालान्तर में तीर्थंकर भगवान वज्रसेनजी पंडरीकिनी नगरी पधारे । चक्रवर्ती सम्राट वज्रनाभ, भगवन्त का आगमन जान कर हर्षित हुआ। वह अपने पिता तीर्थकर भगवान् को वन्दन करने गया। भगवान् का धर्मोपदेश मन कर वैराग्य बढ़ा और पुत्र को राज्य भार दे कर अपने चारों भाई और सुयशा के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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