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________________ छठे वासुदेव-बलदेव भगवान् अरनाथ के तीर्थ में छठं वासुदेव, बलदेव और प्रतिवा नुदेव हुए । उनका चरित्र इस प्रकार है । विजयपुर नाम के नगर में सुदर्शन नाम का राजा था। उसने दमपर नाम के मुनिराज से धर्मोपदेश सुन कर दीक्षा ग्रहण करली और चारित्र तथा तप की आराधना कर के सहस्रार नाम देवलोक में देव हुआ । इस भरत क्षेत्र में पोतनपुर नाम का नगर था । प्रियमित्र नाम का राजा वहीं राज करता था । उस राजा की अत्यंत सुन्दरी एवं प्रिय रानी का, सुकेतु नाम के दूसरे बलवान् राजा ने हरण कर लिया था । इस असह्य आघात से प्रियमित्र राजा अत्यंत दुःखी हुआ । संसार की भयानक स्थिति का विचार कर वह विरक्त हो गया और संयमी बन कर, कठोर तप करने लगा । वह चारित्र और तप की आराधना तो करता था, किन्तु उसके हृदय में सुकेतु के प्रति वैर का काँटा खटक रहा था । जब उसे वह याद आता, तो वह द्वेष पूर्ण स्थिति में कुछ समय सोचता ही रहता । उसने अपने शरीर की उपेक्षा कर के कठोर साधना अपना ली, किन्तु साथ ही आत्मा की भी उपेक्षा कर दी और वैरभाव की तीव्रता में यह निश्चय कर लिया; मैं इस समय तो भौतिक साधनों से हीन हूँ। किंतु इस कठोर साधना के फलस्वरूप आगामी भव में विपुल एवं अमोघ साधनों का स्वामी बन कर इस सुकेतु के सर्वनाशका कारण बनूं * । इस प्रकार का संकल्प कर के मन में एक गांठ aft और जीवन पर्यन्त इस वैर की गाँठ को बनाये रखा। साधना उनकी चलती रही । किन्तु अध्यवसायों में रही हुई अशुद्धि ने उस साधना को मैली बना दिया। वे जीवन की स्थिति पूर्ण कर माहेन्द्र नामक चौथे देवलोक में देव हुए । 115 वैताढ्यगिरि पर अरिजय नगर में मेघनाद नाम का विद्याधर राजा था । सुभूम चक्रवर्ती ने उसे विद्याधर की दोनों श्रेणियों का राज्य दिया था। वह सुभूम चक्रवर्ती की रानी पद्मश्री का पिता था। प्रियमित्र की रानी का हरण करने वाला सुकेतु राजा भवभ्रमण करता हुआ मेघनाद के वंश में 'बलि' नाम का प्रतिवासुदेव हुआ। वह तीन खण्ड पृथ्वी का अधिपति था । * पाठक सोच सकते हैं कि निदान करने वाले आगामी भव की अनुकूलता का ही निदान क्यों करते हैं । इसी भत्र का क्यों नहीं करते ? उत्तर है-यदि इसी भव में वैर लेना चाहें, तो उन्हें साधुता से पतित हो कर लोकनिन्दित होना पड़े। वे सोचते हैं कि हमने आजीवन संयमी रहने की प्रतिज्ञा ली । अतएव प्रतिज्ञा का भंग हम नहीं कर सकते । अन्मया तेजोलेश्या आदि शक्ति प्राप्त कर वे इसी भव में बदला ले सकते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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