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तीर्थङ्कर चरित्र
ही राजकुमारों के अंगरक्षकों का टिकना असंभव हो गया। वे युद्ध में ठहर नहीं सके और भाग खड़े हुए। यह देख कर दोनों राजकुमार युद्ध-रत हो गए और शत्रु-सेना का संहार करने लगे। उन दोनों बलवीरों की मार, सुरेन्द्रदत्त की सेना सहन नहीं कर सकी और युद्धस्थल से भाग गई । यह देख कर राजा सुरेन्द्रदत्त और उसका राजकुमार भी मैदान में आ गया। दोनों का जम कर युद्ध हुआ, किंतु वे सफल नहीं हो सके। दोनों राजकुमारों ने उन्हें हरा कर अपना बन्दी बना लिया और उस राज्य पर अपनी आज्ञा चला कर आगे बढ़ गए। जब वे सुमन्दिरपुर के निकट पहुंचे, तो महाराजा निहतशत्रु, उनके स्वागत के लिए सामने आया और दोनों राजकुमारों का आलिंगन कर के मस्तक पर चुम्बन किया। शुभ मुहूर्त में राजकुमारी प्रियमित्रा और मनोरमा, इन दो बड़ी पुत्रियों का लग्न मेघरथ कुमार के साथ और छोटी पुत्री राजकुमारी सुमति का लग्न राजकुमार दृढ़रथ के साथ किया। दोनों राजकुमार अपनी पत्नियों और विपुल समृद्धि के साथ अपने नगर की ओर चले । मार्ग में उन्होंने पराजित राजा सुरेन्द्रदत्त और उसके पुत्र को राज्याधिकार प्रदान कर दिया और अपने नगर में आये। वे सुखोपभोग पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कालान्तर में राजकुमार मेघरथ की रानी प्रियमित्रा ने नन्दीसेन नामक पुत्र को और रानी मनोरमा ने मेघसेन नामक पुत्र को जन्म दिया। राजकुमार दृढ़रथ की पत्नी सुमति ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम रथसेन रखा गया।
कुर्कुट कथा
एक दिन महाराजा धनरथ अपने अन्तःपुर में रानियों, पुत्रों और पौत्रों के साथ विविध प्रकार के विनोद कर रहे थे कि सुरसेना नाम की गणिका, हाथ में एक कुर्कुट ले कर आई और निवेदन करने लगी;--
“देव मेरा यह मुर्गा अपनी जाति में सर्वोत्तम है, मुकुट के समान है। इसे दूसरा कोई भी मुर्गा जीत नहीं सकता । यदि किसी दूसरे व्यक्ति का मुर्गा, मेरे मुर्गे को जीत ले, तो मैं उसे एक लाख स्वर्ण-मुद्रा देने को तत्पर हूँ। यदि किसी के पास ऐसा मुर्गा हो, तो वह मेरे इस दाव को जीत सकता है।"
गणिका की उपरोक्त प्रतिज्ञा सुन कर युवराज्ञी मनोरमा ने कहा;--" मेरा मुर्गा, सुरसेना के मुर्गे के साथ लड़ेगा।' महाराज ने स्वीकृति दे दी। युवराज्ञी ने दासी को
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