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भ० शांतिनाथजी--नारद-लीला निमित्त बनी
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एक बार महाराजा स्तिमितसागर अश्वारूढ़ हो कर वन में गए। वहाँ एक वृक्ष के नीचे विविध अतिशय सम्पन्न प्रतिमाधारी मुनिराज स्वयंप्रभ को ध्यानारूढ़ देखा। राजा घोडे से नीचे उतर कर मनिराज के निकट गया और वन्दना कर के बैठ गया । मनिराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया। राजा धर्मोपदेश सुन कर संसार से विरक्त हो गया। वह राजधानी में आया और अपने राज्य का भार राजकुमार अनन्तवीर्य को दे कर प्रव्रजित हो गया। उसने बहुतकाल तक संयम और तप की आराधना की, किंतु बाद में मानसिक विराधना से चलित हो कर मृत्यु पाया और भवनपति देवों में चमरेन्द्रपने उत्पन्न हुआ।
नारद-लीला निमित्त बनी
राजा अनन्तवीर्य अपने बड़े भाई अपराजित के साथ राज्य का संचालन कर रहा था । कालान्तर में एक विद्याधर के साथ मित्रता हो गई। उस विद्याधर ने प्रसन्न हो कर महाविद्या प्रदान की। राजा के बर्बरी और किराती नाम की दो दासियाँ थीं। वे रूप में अत्यंत सुन्दर और गायन तथा नृत्य-कला में अत्यंत निपुण थीं। वे अपनी कला का प्रदर्शन कर के राजा के मन को आनन्दित करती रहती थीं । एक बार वे राज-सभा में नृत्य कर रही थी, इतने में कौतुक-प्रिय एवं भ्रमणशील नारदजी वहाँ आ पहुँचे। उस समय दोनों नृत्यांगनाओं का उत्कृष्ट नृत्य देखने में अनन्तवीर्य महाराज और उनके ज्येष्ठ-भ्राता तल्लीन हो गए थे। उन्हें नारदजी के आने का आभास भी नहीं हुआ, इसलिए वे उनका आदर नहीं कर सके । अपना सम्मान नहीं होने के कारण नारदजी क्रोधित हो गए। उन्होंने सोचा--" इन घमंडी लोगों को मेरी परवाह ही नहीं है। अपने अभिमान में वे इतने अन्धे हो गए कि इन नाचनेवाली दासियों ने भी मेरी इज्जत नहीं की। ठीक है, मैं अपने अनादर का मजा चखाता हूँ । इन्हें मालूम हो जायगा कि नारद के अनादर का क्या परिणाम होता है।" इस प्रकार सोच कर वे वहाँ से लौट गए और वेताहय पर्वत पर विद्याघरों के अधिपति राजा दमितारि की राज-सभा में पहुँचे। उस समय वह सैकड़ों विद्याधरों की सभा में बैठा था। नारदजी को आते देख कर वह सिंहासन से नीचे उतरा और उन्हें सत्कारपूर्वक सिंहासन पर बैठने का आग्रह किया। किंतु नारद अपना दर्भासन बिछा कर बैठ गए । उन्हें केवल योग्य सत्कार की ही चाह थी। उन्होंने राजा का कुशल-क्षेम पूछा। राजा ने योग्य शिष्टाचार के बाद पूछा;--
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