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तीर्थङ्कर चरित्र
नष्ट कर के केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त कर लिया । देवगण उनके केवलज्ञान की महिमा करने के लिए वहाँ आय अभिनन्दन, जगनन्दन, ज्वलनजटी, विजटी, अर्ककीर्ति, पुष्पकेतु और विमलमति आदि चारण मुनि भी केवलज्ञानी भगवान् की वन्दना करने के लिये आये और प्रदक्षिणा एवं नमस्कार कर के बैठे। उसी समय अशनिघोष भी भयभीत दशा में भागता हुआ वहाँ आया और केवली भगवान् की शरण में बैठ गया । महाज्वाला से बचने के लिए अशनिघोष को केवली भगवान् का शरण, शीतल अमृतमय जल भरे हुए द्रह के समान रक्षक हुआ । जहाँ द्रव्य और भाव सभी प्रकार की ज्वालाएँ शांत होती है । केवली भगवान् की सभा में इन्द्र के वज्र की भी गति नहीं हो सकती, तो मानवी विद्याएँ क्या कर सकती थी ? वह लौट गई और अमिततेज को अपनी असफलता का कारण बताया। अमिततेज और श्रीविजय यह वृत्तांत सुन कर अत्यंत प्रसन्न हुए । उन्होंने मरीचि को आज्ञा दी कि वह नगर में से सुतारा को ले आवे। दोनों नरेश शीघ्र ही विमान द्वारा केवली भगवान् की सेवामें पहुँचे और वन्दना नमस्कार कर बैठ गए ।
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मरीचि अन्तःपुर में पहुँचा । उसने देखा -- सुतारा अत्यंत दुःखी, मुरझाई हुई लता जैसी और तप से कृश बनी हुई है । उसने अशनिघोष की माता से अमिततेज की आज्ञा सुना कर सुतारा को ले जाने की बात कही, तो वह स्वयं सुतारा को साथ ले कर केवल - ज्ञानी भगवंत के समीप आई। वहाँ उसके पति मुनिजी भी उपस्थित थे ।
अशनिघोष ने महाराजा श्रीविजय और अमिततेज से अपने अपराध की क्षमा माँगी। उन्होंने भी उसे क्षमा कर दिया । वीतरागी भगवान् की सभा में वे अपना वैरविरोध भूल कर प्रशस्त परिणाम वाले हो गए। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश पूर्ण होने पर अशनिघोष ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् से पूछा, --
"प्रभो ! ऐसा कौन-सा कारण था कि जिससे मैने अचानक सुतारा का हरण कर लिया ? में तो श्री जयंत मुनि के दर्शनार्थ गया था और वहाँ सात उपवास कर के भ्रामरी विद्या की साधना की थी । बहाँ से लौटते समय ज्योतिर्वन में सुतारा को देखते ही मेरे मन में एकदम स्नेह उमड़ आया । मैने स्नेहाधीन हो कर प्रतारिणी विद्या से श्री विजय को छला और सुतारा को अपने घर ले आया । मेरे मन में कोई दुष्ट भावना नहीं थी । मैने सुतारा को अपनी माता के पास रखा और उसे एक भी कुवचन नहीं कहा । सुतारा निष्कलंक है, किन्तु मैने बिना दुष्ट भावना के स्नेहवश हो कर सुतारा का हरण क्यों किया ? मेरे मन में बिना पूर्व परिचय के देखने मात्र से ही ऐसा प्रबल स्नेह क्यों
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