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तीर्थङ्कर चरित्र
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राजा उठा । उसने लकड़ियां एकत्रित कर के चिता रची और अपनी प्रिया का शव गोदी में ले कर चिता में बैठ गया, तथा अग्नि प्रज्वलित करने का प्रयत्न करने लगा। इतने में दो विद्याधर वहाँ आये। उनमें से एक ने अभिमन्त्रित जल चिता पर छिड़का । जल छिट. कना था कि मृत सुतारा के रूप में रही हुई प्रतारिणी विद्या अट्टहास करती हुई पलायन कर गई । राजा दिग्मूढ़ हो गया। वह सोचने लगा--"वह प्रज्वलित अग्नि कैसे बूझ गयी ? मेरी प्रिया कहाँ ? अट्टहास करती हुई चली जाने वाली वह स्त्री कौन थी ? क्या यह कोई इद्रजाल या देवमाया तो नहीं है ?" उसने अपने सामने दो पुरुषों को देखा । राजा ने उन्हें पूछा-"तुम कौन हो ? यह सारा भ्रम-जाल किसने रचा ?"
आगत पुरुषों ने राजा को प्रणाम किया और कहने लगे:--"हम महाराज अमिततेज (श्री विजय नरेश के साले) के सेवक हैं । हम पिता-पुत्र हैं । हम इधर आ रहे थे कि हमारे कानों में एक महिला की चित्कार और करुण पुकार पड़ी । वह इस प्रकार चिल्ला रही थी
"हे प्राणनाथ ! हे महाराजा श्री विजय ! यह दुष्ट विद्याधर मुझे आप से चुराकर ले जा रहा है । मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। हे बन्धुवर अमिततेज ! बहिन सुतारा को यह चोर ले जा रहा है । मुझे बचाओ, छुड़ाओ।"
इस प्रकार आक्रन्द पूर्ण पुकार सुनते ही हम दोनों उस दुष्ट पर झपटे और उससे युद्ध करने को तत्पर हुए । किंतु हमें युद्ध से रोकते हुए सुतारा ने कहा--
___"भाई ! अभी तुम लड़ना रहने दो और शीघ्र ही ज्योतिर्वन में जा कर मेरे प्राणेश्वर महाराज श्रीविजय को संभालो। कहीं मेरे वियोग में वे कुछ अनर्थ नहीं कर बैठे। उनके जीवन से ही मेरा जीवन रहेगा। वे जीवित रहेंगे, तो मुझे मुक्त करा ही लेंगे।"
"देवी की बात हमारी समझ में आई और हम शीघ्र ही यहाँ आये और मन्त्रित जल छिड़का, जिससे अग्नि बुझी और सुतारा के रूप में रही हुई प्रतारिणी विद्या का प्रभाव हटा और वह अट्टहास करती हुई भाग गई । वह एक छल ही था और आपके विनाश के लिए ही उस चोर विद्याधर ने रचा था। देवी सुतारा को तो वह ले गया है । अब आप हमारे साथ वैताढ्य पर चलिए । वहाँ महाराजा अमिततेज से मिल कर देवी को मुक्त कराने का प्रयत्न करेंगे।"
महाराज श्रीविजय, उन विद्याधरों के साथ वैताढय पर्वत पर गए । महाराज
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