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भ. शांतिनाथजी दासी-पुत्र कपिल
सूखे वस्त्र देख कर बह अवाक रह गई । उसने पूछा; ----
"इस जोरदार वर्षा में भी आपके वस्त्र सूख कैसे रह गए ?" --"प्रिये ! मन्त्र के प्रभाव से मेरे वस्त्र भीग नहीं सके ।'
सत्यभामा ने विचार किया-“यदि मन्त्र के प्रभाव से वर्षा से इनके वस्त्र बच गए, तो शरीर क्यों नहीं बचा ? इनका शरीर तो पूरा पानी से तर हो रहा है । इसलिए लगता है कि ये वस्त्र-रहित--नग्न ही आये और कपड़ों को वर्षा से बचा लिया।" यह विचार आते ही उसके मन में सन्देह उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार वस्त्र बचाने के लिए नग्न हो कर आने वाला मेरा पति, किसी हीन कुल का होना चाहिए । ऐसी निर्लज्जता स्वार्थवश कुलहीन ही कर सकता है। इस विचार के साथ ही उसके मन में चिन्ता लग गई। वह
को हतभागिनी मान कर मन-ही-मन घलने लगी और सत्य बात का पता लगाने की इच्छुक बनी।
उधर कपिल का पिता धरणीजट ब्राह्मण निर्धन हो गया। उसने सुना कि कपिल, रत्नपुर के महोपाध्याय सत्यकी का जामाता है और प्राचार्य भी। उसके पास धन की कमी नहीं है। अतएव वह धन प्राप्त करने की इच्छा से कपिल के पास आया। क का सत्कार किया। कपिल ने पिता के भोजन के विषय में पत्नी को बताया कि--'मेरे शरीर में व्याधि है, इसलिए में माधारण-सा भोजन कर लूंगा, पहले तुम पिताश्री के लिए उत्तम भोजन बना कर उन्हें आदर-सहित भोजन करा दो।"
पिता और पुत्र का पृथक् भोजन देख कर सत्यभामा की शंका दृढ़तर हो गई। उसने समझ लिया कि--मेरा श्वशुर तो उत्तम कुल का ब्राह्मण है, परन्तु पति की उत्पत्ति हीन-स्थान पर हुई है । इसीसे भोजन में भेद हो रहा है । उसने श्वशुर को आदरपूर्वक भोजन कराया। वह पिता के समान श्वशुर की शुश्रूषा करने लगी। अवसर देख कर सत्यभामा ने, ब्रह्महत्या की शपथ देते हुए श्वशुर से पूछा ; ----
"पूज्य ! आपके पुत्र की उत्पत्ति उभय-पक्ष की शुद्धतापूर्वक हुई है, या किसी एक पक्ष में कोई दोष है ?"
धरणीजट विचार में पड़ गया। शपथपूर्वक पूछने के कारण उसे सत्य बात कहनी ही पड़ी। धरणीजट अपने गांव चला आया । सत्यभामा को अपने पति की उत्पत्ति में हीनता जान कर बड़ा दुःख हुआ। वह महाराजा श्रीसेन के पास गई और निवेदन किया कि
" महाराज ! भाग्य-योग से मेरा पति कुलहीन है । मुझ अबला को इससे मुक्त
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