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भ० वासुपूज्यजी -- द्विपुष्ट वासुदेव चरित्र
इस राज्य का रक्षक ही है । फिर वह हमारा स्वामी कैसे बन गया ? जिस प्रकार वह अपने भुज-बल से, हम से हाथी-घोड़े और रत्न माँगता है, उसी प्रकार हम भी अपने भुजबल से, तुम्हारे राजा से ये ही वस्तुएँ माँगते हैं । इसलिए हे दूत ! तुम यहाँ से चले जाओ। हम स्वयं तुम्हारे राजा से, उसके मस्तक के साथ ये वस्तुएँ हस्तगत करने के लिए वहाँ आवेंगे ।"
दूत ने जाकर सारी बात तारक नरेश से कही । तारक की क्रोधाग्नि भड़की । उसने उसी समय युद्ध की घोषणा कर दी । अधिनस्थ राजागण, सामन्तगण, सेनापति और विशाल सेना सज्ज हो कर युद्ध के लिए तत्पर हो गई । प्रयाण के प्रारम्भ में ही भूकम्प, विद्युत्पात, कौओं की कर्राहट आदि अशुभ परिणाम सूचक लक्षण प्रकट हुए। किंतु तारक नरेश ने क्रोधावेश में इन सभी अशुभ सूचक प्राकृतिक लक्षणों की उपेक्षा कर के प्रयाण कर ही दिया और शीघ्रता से आगे बढ़ने लगे ।
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इधर ब्रह्म राजा और दोनों कुमार भी अपनी सेना ले कर आ गये । महान् संहारक युद्ध होने लगा । लाखों मनुष्य मारे गये । चारों ओर रक्त का समुद्र जैसा बन गया । उसमें कटे हुए हाथ, पाँव, मस्तक आदि तैरने लगे । मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शव के ढेर हो गये । द्विपृष्ट कुमार ने विजय रथ पर आरूढ़ हो कर पाँचजन्य शंख का नाद किया । इस शंखनाद से तारक की सेना त्रस्त हो उठी। अपनी सेना को भयभीत देख कर तारक भी रथारूढ़ हो कर द्विपृष्ट कुमार के सामने आया । तारक की ओर से भयंकर शस्त्र प्रहार होने लगे । द्विपृष्ट ने तारक के सभी अस्त्रों को अपने पास आते ही नष्ट कर दिये । अन्त में तारक ने चक्र उठाया और अपने सम्पूर्ण बल के साथ द्विपृष्ट कुमार पर फेंका | चक्र के आघात से द्विपृष्ट कुमार मूच्छित हो गये । किन्तु थोड़ी ही देर में सावधान हो कर उसी चक्र को ग्रहण किया और तारक को अंतिम चेतावनी देते हुए कहा ;
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“ऐ मृत्यु के ग्रास वृद्ध तारक ! जीवन प्रिय हो, तो अब भी हट जा मेरे सामने से । अन्यथा यह तेरा सर्वश्रेष्ठ अस्त्र ही तुझे चिर निद्रा में सुला देगा ।"
तारक की मृत्यु आ गई थी । वह नहीं माना और द्विपृष्ट द्वारा फेंके हुए चक्र से ही वह मृत्यु पा कर नरक में गया । तारक-पक्ष के सभी राजा और सामंत, द्विपृष्ट आधीन हो गए । द्विपृष्ट ने उसी स्थान से दिग्विजय प्रारम्भ कर दिया और दक्षिण भरतक्षेत्र को जीत कर उसका अधिपति हो गया । द्विपृष्ट का अर्द्धचक्री - वासुदेवपन का अभि
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