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________________ भ. श्रेयांसनाथ जी--अश्वग्रीव का भयंकर युद्ध और मृत्यु २३१ यह चक्र, इन्द्र के वज्र के समान अमोघ है। यह न तो पीछे हटता है और न व्यर्थ ही जाता है । मेरे हाथ से यह चक्र छटा कि तेरे शरीर से प्राण छुटे । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। इसलिए क्षत्रियत्व एवं वीरत्व के अभिमान को छोड़ कर, मेरे अनुशासन को स्वीकार कर ले । मैं तेरे पिछले सभी अपराध क्षमा कर दूंगा । मेरे मन में अनुकम्पा उत्पन्न हुई है । यह तेरे सद्भाग्य का सूचक है । इसलिए दुराग्रह छोड़ कर सीधे मार्ग पर आजा।" __ अश्वग्रीव की बात सुन कर त्रिपृष्ठ हँसते हुए बोले ;-- "अश्वग्री व ! वास्तव में तू वृद्ध एवं शिथिल हो गया है । इसीसे उन्मत्त के समान दुर्वचन बोल रहा है । तुझे विचार करना चाहिए कि बाल केसरीसिंह, बड़े गजराज को देख कर डरता नहीं, गरुड़ का छोटा बच्चा भी बड़े भुजंग को देख कर विचलित नहीं होता और बाल सूर्य भी संध्याकाल रूप राक्षस से भयभीत नहीं होता । मैं बालक हूँ, फिर भी तेरे सामने युद्ध करने आया हूँ। मैंने तेरे अब तक के सारे अस्त्र व्यर्थ कर दिये, अब फिर एक अस्त्र और छोड़ कर, उसका भी उपयोग कर ले। पहले से इतना घमण्ड क्यों करता है ?" त्रिपृष्ठ के वचन से अश्वग्रीव भड़का । उसके हृदय में क्रोध की ज्वाला सुलग उठी। उसने चक्र को ऊँचा उठा कर अपने सिर पर सूब घुमाया और सम्पूर्ण बल से उसे त्रिपृष्ठ पर फेंका। चक्र ने त्रिपृष्ठ के वज्रमय एवं शिला के समान वक्षस्थल पर आधात किया और टकरा कर वापिस लौटा । चक्र के अग्रभाग के दृढतम आघात से त्रिपृष्ठ मूच्छित हो कर नीचे गिर गये और चक्र भी स्थिर हो गया । त्रिपृष्ठ की यह दशा देख कर उसकी सेना में हाहाकार मच गया। अपने लघुबन्धु को मूच्छित देख कर अचलकुमार को मानसिक आघात लगा और वे भी मूच्छित हो गए । दोनों को मूच्छित देख कर अश्वग्रीव ने सिंहनाद किया और उसके सैनिक जय जयकार करते हुए हर्षोन्मत्त हो कर किलकारी करने लगे। कुछ समय बीतने पर अचलकुमार की मूर्छा दूर हुई। वे सावधान हुए । जब उनका ध्यान हर्षनाद की ओर गया, तो उन्होंने इसका कारण पूछा । सेनाधिकारियों ने कहा--" त्रिपृष्ठकुमार के मूच्छित हो जाने पर शत्रु-सेना प्रसन्नता से उन्मत्त हो उठी है । यह उसी की ध्वनि है।" अचलकुमार को यह सुन कर क्रोध चढ़ा । उन्होंने गर्जना करते हुए अश्वग्रीव से कहा--- “रे दुष्ट ! ठहर, मैं तेरे हर्षोन्माद की दवा करता हूँ।" उन्होंने गदा उठाई और अश्वग्रीव पर झपटने ही वाले थे कि त्रिपृष्ठ सावधान हो गए उन्होंने ज्येष्ठ बन्धु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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